भामाशाह जीवनी - Biography of Bhamashah in Hindi Jivani Published By : Jivani.org भामाशाह (1542 - लगभग 1598) बाल्यकाल से मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप के मित्र, सहयोगी और विश्वासपात्र सलाहकार थे। अपरिग्रह को जीवन का मूलमंत्र मानकर संग्रहण की प्रवृत्ति से दूर रहने की चेतना जगाने में आप सदैव अग्रणी रहे। मातृ-भूमि के प्रति अगाध प्रेम था और दानवीरता के लिए भामाशाह नाम इतिहास में अमर है। दानवीर भामाशाह का जन्म राजस्थान के मेवाड़ राज्य में 29 अप्रैल 1547 को जैन धर्म में हुआ। भामाशाह का निष्ठापूर्ण सहयोग महाराणा प्रताप के जीवन में महत्वपूर्ण और निर्णायक साबित हुआ। मातृ-भूमि की रक्षा के लिए महाराणा प्रताप का सर्वस्व होम हो जाने के बाद भी उनके लक्ष्य को सर्वोपरि मानते हुए अपनी सम्पूर्ण धन-संपदा अर्पित कर दी। यह सहयोग तब दिया जब महाराणा प्रताप अपना अस्तित्व बनाए रखने के प्रयास में निराश होकर परिवार सहित पहाड़ियों में छिपते भटक रहे थे। मेवाड़ के अस्मिता की रक्षा के लिए दिल्ली गद्दी का प्रलोभन भी ठुकरा दिया। महाराणा प्रताप को दी गई उनकी हरसम्भव सहायता ने मेवाड़ के आत्म सम्मान एवं संघर्ष को नई दिशा दी। भामाशाह अपनी दानवीरता के कारण इतिहास में अमर हो गए। भामाशाह के सहयोग ने ही महाराणा प्रताप को जहाँ संघर्ष की दिशा दी, वहीं मेवाड़ को भी आत्मसम्मान दिया। कहा जाता है कि जब महाराणा प्रताप अपने परिवार के साथ जंगलों में भटक रहे थे, तब भामाशाह ने अपनी सारी जमा पूंजी महाराणा को समर्पित कर दी। तब भामाशाह की दानशीलता के प्रसंग आसपास के इलाकों में बड़े उत्साह के साथ सुने और सुनाए जाते थे। हल्दी घाटी के युद्ध में पराजित महाराणा प्रताप के लिए उन्होंने अपनी निजी सम्पत्ति में इतना धन दान दिया था कि जिससे २५००० सैनिकों का बारह वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। प्राप्त सहयोग से महाराणा प्रताप में नया उत्साह उत्पन्न हुआ और उन्होंने पुन: भामाशाह दानवीर के साथ काबिल सलाहकार, योद्धा, शासक व प्रशासक भी थे. महाराणा प्रताप हल्दीघाटी का युद्ध (18 जून, 1576 ई.) हार चुके थे, लेकिन इसके बाद भी मुग़लों पर उनके आक्रमण जारी थे. धीरे-धीरे मेवाड़ का कुछ इलाका महाराणा प्रताप के कब्जे में आने लगा था. किन्तु बिना बड़ी सेना के शक्तिशाली मुग़ल सेना के विरुद्ध युद्ध जारी रखना कठिन था. सेना का गठन धन के बिना सम्भव नहीं था. राणा ने सोचा जितना संघर्ष हो चुका, वह ठीक ही रहा. यदि इसी प्रकार कुछ और दिन चला, तब संभव है जीते हुए इलाकों पर फिर से मुग़ल कब्जा कर लें. इसलिए उन्होंने यहाँ की कमान अपने विश्वस्त सरदारों के हाथों सौंप कर सन 1578 ईस्वी में गुजरात की ओर कूच करने का विचार किया. प्रताप अपने कुछ चुनिंदा साथियों को लेकर मेवाड़ से प्रस्थान करने ही वाले थे कि वहाँ पर उनके पुराने साथी व नगर सेठ भामाशाह उपस्थित हुआ. धन-संपदा का दान भारतीय इतिहास में मेवाड़ोद्धारक दानवीर भामाशाह का नाम बड़े ही गौरव के साथ लिया जाता है। भामाशाह स्वामिभक्त एवं दानवीर होने के साथ—साथ जैनधर्म के परम श्रद्धालु श्रावक थे। हल्दी घाटी के युद्ध में पराजित महाराणा प्रताप के लिए उन्होंने अपनी निजी सम्पत्ति में इतना धन दान दिया था कि जिससे २५००० सैनिकों का बारह वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। प्राप्त सहयोग से महाराणा प्रताप में नया उत्साह उत्पन्न हुआ और उनने पुन: सैन्य शक्ति संगठित कर मुगल शासकों को पराजित कर फिर से मेवाड़ का राज्य प्राप्त किया। भामाशाह का जीवनकाल ५२ वर्ष रहा। उदयपुर राजस्थान में राजाओं की समाधि स्थल के मध्य भामाशाह की समाधि बनी है। जैन महाविभूति भामाशाह के सम्मान में ३१.१२.२००० को ३ रुपये का डाक टिकट जारी किया गया। भामाशाह का निष्ठापूर्ण सहयोग महाराणा प्रताप के जीवन में महत्त्वपूर्ण और निर्णायक साबित हुआ था। मेवाड़ के इस वृद्ध मंत्री ने अपने जीवन में काफ़ी सम्पत्ति अर्जित की थी। मातृ-भूमि की रक्षा के लिए महाराणा प्रताप का सर्वस्व होम हो जाने के बाद भी उनके लक्ष्य को सर्वोपरि मानते हुए भामाशाह ने अपनी सम्पूर्ण धन-संपदा उन्हें अर्पित कर दी। वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति के साथ प्रताप की सेवा में आ उपस्थित हुए और उनसे मेवाड़ के उद्धार की याचना की। माना जाता है कि यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे वर्षों तक 25,000 सैनिकों का खर्चा पूरा किया जा सकता था। महाराणा प्रताप 'हल्दीघाटी का युद्ध' (18 जून, 1576 ई.) हार चुके थे, लेकिन इसके बाद भी मुग़लों पर उनके आक्रमण जारी थे। धीरे-धीरे मेवाड़ का बहुत बड़ा इलाका महाराणा प्रताप के कब्जे में आने लगा था। महाराणा की शक्ति बढने लगी, किन्तु बिना बड़ी सेना के शक्तिशाली मुग़ल सेना के विरुद्ध युद्ध जारी रखना कठिन था। सेना का गठन बिना धन के सम्भव नहीं था। राणा ने सोचा जितना संघर्ष हो चुका, वह ठीक ही रहा। यदि इसी प्रकार कुछ और दिन चला, तब संभव है जीते हुए इलाकों पर फिर से मुग़ल कब्जा कर लें। इसलिए उन्होंने यहाँ की कमान अपने विश्वस्त सरदारों के हाथों सौंप कर गुजरात की ओर कूच करने का विचार किया। वहाँ जाकर फिर से सेना का गठन करने के पश्चात् पूरी शक्ति के साथ मुग़लों से मेवाड़ को स्वतंत्र करवाने का विचार उन्होंने किया। प्रताप अपने कुछ चुनिंदा साथियों को लेकर मेवाड़ से प्रस्थान करने ही वाले थे कि वहाँ पर उनका पुराना ख़ज़ाना मंत्री नगर सेठ भामाशाह उपस्थित हुआ। ( 11 ) 28 Votes have rated this Naukri. Average Rating is 4