कर्ण जीवनी - Biography of Karna in Hindi Jivani Published By : Jivani.org कर्ण का जन्म कुन्ती को मिले एक वरदान स्वरुप हुआ था। जब वह कुँआरी थी, तब एक बार दुर्वासा ऋषि उसके पिता के महल में पधारे। तब कुन्ती ने पूरे एक वर्ष तक ऋषि की बहुत अच्छे से सेवा की। कुन्ती के सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होनें अपनी दिव्यदृष्टि से ये देख लिया कि पाण्डु से उसे सन्तान नहीं हो सकती और उसे ये वरदान दिया कि वह किसी भी देवता का स्मरण करके उनसे सन्तान उत्पन्न कर सकती है। एक दिन उत्सुकतावश कुँआरेपन में ही कुन्ती ने सूर्य देव का ध्यान किया। इससे सूर्य देव प्रकट हुए और उसे एक पुत्र दिया जो तेज़ में सूर्य के ही समान था और वह कवच और कुण्डल लेकर उत्पन्न हुआ था जो जन्म से ही उसके शरीर से चिपके हुए थे। लालन-पालन कर्ण गंगाजी में बहता हुआ जा रहा था कि महाराज धृतराष्ट्र के सारथी अधिरथ और उनकी पत्नी राधा ने उसे देखा और उसे गोद ले लिया और उसका लालन पालन करने लगे। उन्होंने उसे वासुसेना नाम दिया। अपनी पालनकर्ता माता के नाम पर कर्ण को राधेय के नाम से भी जाना जाता है। अपने जन्म के रहस्योद्घाटन होने और अंग का राजा बनाए जाने के पश्चात भी कर्ण ने सदैव उन्हीं को अपना माता-पिता माना और अपनी मृत्यु तक सभी पुत्र धर्मों निभाया। अंग का राजा बनाए जाने के पश्चात कर्ण का एक नाम अंगराज भी हुआ। प्रशिक्षण कुमार अवास्था से ही कर्ण की रुचि अपने पिता अधिरथ के समान रथ चलाने कि बजाय युद्धकला में अधिक थी। कर्ण और उसके पिता अधिरथ आचार्य द्रोण से मिले जो उस समय युद्धकला के सर्वश्रेष्ठ आचार्यों में से एक थे। द्रोणाचार्य उस समय कुरु राजकुमारों को शिक्षा दिया करते थे। दानवीर कर्ण महाभारत का युद्ध चल रहा था। सूर्यास्त के बाद सभी अपने-अपने शिविरों में थे। उस दिन अर्जुन कर्ण को पराजित कर अहंकार में चूर थे। वह अपनी वीरता की डींगें हाँकते हुए कर्ण का तिरस्कार करने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण बोले-'पार्थ! कर्ण सूर्यपुत्र है। उसके कवच और कुण्डल दान में प्राप्त करने के बाद ही तुम विजय पा सके हो अन्यथा उसे पराजित करना किसी के वश में नहीं था। वीर होने के साथ ही वह दानवीर भी हैं। ' कर्ण की दानवीरता की बात सुनकर अर्जुन तर्क देकर उसकी उपेक्षा करने लगा। श्रीकृष्ण अर्जुन की मनोदशा समझ गए। वे शांत स्वर में बोले-'पार्थ! कर्ण रणक्षेत्र में घायल पड़ा है। तुम चाहो तो उसकी दानवीरता की परीक्षा ले सकते हो।' अर्जुन ने श्रीकृष्ण की बात मान ली। दोनों ब्राह्मण के रूप में उसके पास पहुँचे। घायल होने के बाद भी कर्ण ने ब्राह्मणों को प्रणाम किया और वहाँ आने का उद्देश्य पूछा। श्रीकृष्ण बोले-'राजन! आपकी जय हो। हम यहाँ भिक्षा लेने आए हैं। कृपया हमारी इच्छा पूर्ण करें।' कर्ण थोड़ा लज्जित होकर बोला-'ब्राह्मण देव! मैं रणक्षेत्र में घायल पड़ा हूँ। मेरे सभी सैनिक मारे जा चुके हैं। मृत्यु मेरी प्रतीक्षा कर रही है। इस अवस्था में भला मैं आपको क्या दे सकता हूँ?' 'राजन! इसका अर्थ यह हुआ कि हम ख़ाली हाथ ही लौट जाएँ? किंतु इससे आपकी कीर्ति धूमिल हो जाएगी। संसार आपको धर्मविहीन राजा के रूप में याद रखेगा।' यह कहते हुए वे लौटने लगे। तभी कर्ण बोला-'ठहरिए ब्राह्मणदेव! मुझे यश-कीर्ति की इच्छा नहीं है, लेकिन मैं अपने धर्म से विमुख होकर मरना नहीं चाहता। दुर्योधन का घनिष्ठ मित्र: दुर्योधन तथा कर्ण के बीच मित्रता दिन व दिन गहरी होती गयी । दुर्योधन ने कभी भी कर्ण को अपने से कम नहीं समझा । वह हमेशा कर्ण के साथ ही रहता था । वह अपनी प्रत्येक बात कर्ण से कह देता था । जब उसके कर्मचारी उसकी प्रशंसा करते तो वह उन्हें कर्ण की प्रशंसा करने को कहता और उसी में उसे संतोष होता था । प्रतिदिन दुर्योधन, कर्ण को बहुमूल्य उपहार देता था । वह कर्ण के उज्ज्वल चरित्र, शक्ति, ईमानदारी तथा उदारता का सम्मान करता था कर्ण भी दुर्योधन के उपहार को चुकाने में पीछे नहीं रहे । दुर्योधन को वे अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे । उसकी खातिर कर्ण अपने प्राण तक न्योछावर कर सकते थे । जब दूसरों ने ’सारथी का पुत्र‘ कहकर कर्ण का अपमान किया, तब सिर्फ दुर्योधन ने ही उन्हें अपने बराबर सम्मान प्रदान किया था । अतः कर्ण, दुर्योधन की बड़ी इज्जत किया किया करते थे । दानवीरता में कर्ण अद्वितीय थे । अपने वचन पूरे करने में वे प्राणों की आहुति तक देने से नहीं चूकने वाले थे । प्रतिदिन सैकड़ों निर्धन व्यक्ति सहायता की आशा में कर्ण के पास आते थे । कर्ण उन्हें वस्त्र या धन प्रदान करते थे । इसी गुण के कारण कर्ण ’दानशूर‘ कहलाये । कौरव पांडव चचेरे भाई थे । राज्य के लिये उनमें हमेशा विवाद होता रहता था । जब कभी भी दोनों के बीच झगड़ा होता, कर्ण कौरवों में सबसे बड़े दुर्योधन का पक्ष लेते थे । वे हमेशा यह कहा करते कि, ’’दुर्योधन के लिये मैं युद्ध करूंगा क्यो कर्ण को आज भी इज़्ज़त की नज़र से देखा जाता कोई भी कृष्ण के कर्ण को मारने का सही जवाब नहीं दे सकता लेकिन जो अधर्म के रास्ते पर चलेगा उसका सर्वनाश निश्चित है। कर्ण ग़लत नहीं था सिर्फ उन्होंने गलत लोगों का साथ दिया था यही वजह है कि उनकी मौत के बाद भी दुनिया भर में उनको इज्जत से याद किया जाता है। ( 16 ) 19 Votes have rated this Naukri. Average Rating is 3