न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानडे जीवनी - Biography of Mahadev Govind Ranade in Hindi Jivani Published By : Jivani.org न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानडे (१८ जनवरी १८४२ – १६ जनवरी १९०१) एक ब्रिटिश काल के भारतीय न्यायाधीश, लेखक एवं समाज-सुधारक थे। रानडे नासिक, महाराष्ट्र के एक छोटे से कस्बे निफाड़ में पैदा हुए थे। उनका जन्म निंफाड़ में हुआ और आरम्भिक काल उन्होंने कोल्हापुर में बिताया, जहां उनके पिता मंत्री थे। इनकी शिक्षा मुंबई के एल्फिन्स्टोन कॉलेज में चौदह वर्ष की आयु में आरम्भ हुअई थी। ये बम्बई विश्वविद्यालय के दोनों ही; (कला स्नातकोत्तर) (१८६२) एवं विधि स्नातकोत्तर (एल.एल.बी) (१८६६) में) के पाठ्यक्रमों में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए। इन्हें बम्बई प्रेसीडेंसी मैजिस्ट्रेट, मुंबई स्मॉल कौज़ेज़ कोर्ट के चतुर्थ न्यायाधीश, प्रथम श्रेणी उप-न्यायाधीश, पूणे १८७३ में नियुक्त किया गया। सन १८८५ से ये उच्च न्यायालय से जुड़े। ये बम्बई वैधानिक परिषद के सदस्य भी थे। १८९३ में उन्हें मुंबई उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया गया। सन १८९७ में रानडे उस समिति में भी सेवारत रहे, जिसे शाही एवं प्रांतीय व्यय का लेखा जोखा रखने एवं आर्थिक कटौतियों का अनुमोदन करने का कार्यभार मिला था। इस सेवा हेतु, उन्हें कम्पैनियन ऑफ द ऑर्डर ऑफ इंडियन एम्पायर का दर्जा मिला। इन्होंने सन १८८७ से द डेक्कन एग्रीकल्चरिस्ट्स रिलीफ एक्ट के अन्तर्गत विशेष न्यायाधीश के पदभार को भी संभाला। ज्ञान गरिमा के साथ-साथ रानाडे में आत्मगौरव तथा स्वदेशाभिमान का भी समुचित विकास होता गया, जिसका प्रमाण उन्होंने उस समय दिया जिस समय अलेक्जेन्डर ग्राँट नामक एक अंग्रेज शिक्षक के दिये एक इतिहास के प्रश्न का उत्तर उन्होंने किसी प्रकार की शंका से मुक्त होकर उत्तर पुस्तिका में लिखा। ग्रान्ट महोदय महादेव गोविन्द रानाडे पर बहुत ही कृपालु थे। रानाडे भी यह बात जानते थे कि ग्रान्ट महोदय की कृपा से ही वे साधन रहित होते हुये भी अध्ययन की अनेक सुविधायें प्राप्त कर सके थे। यद्यपि गुणों का अपना मूल्य एवं महत्व तो है ही, फिर भी उसके प्रशंसित एवं पुरस्कृत होने में किसी कृपालु गुण-ग्राहक का भी आभार रहता है और शिष्टाचार तथा व्यवहार एवं मनुष्यता के नाते गुण ग्राहक को भी धन्यवाद पूर्वक प्रसन्न रखना ही पड़ता है। ग्रान्ट महोदय का प्रश्न था-”अंग्रेजी राज्य तथा मराठा राज्य की तुलनात्मक विवेचना।” सभी विद्यार्थियों ने अपने प्रभावशाली अंग्रेज अध्यापक श्री ग्रान्ट को प्रसन्न करने के लिये प्रश्न के उत्तर में मराठों के राज्य की तुलना में अंग्रेज राज्य की प्रशंसा की। किन्तु महादेव गोविन्द रानाडे के स्वाभिमान तथा राष्ट्रीय गौरव ने अंग्रेजी राज्य की झूठी प्रशंसा करना स्वीकार न किया और उन्होंने सत्य समीक्षक के रूप में अंग्रेजी राज्य की आलोचना करते हुये मराठा राज्य की प्रशंसा की। करियर : महादेव गोविन्द रानाडे का चयन प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट के तौर पर हुआ। सन 1871 में उन्हें ‘बॉम्बे स्माल काजेज कोर्ट’ का चौथा न्यायाधीश, सन 1873 में पूना का प्रथम श्रेणी सह-न्यायाधीश, सन 1884 में पूना ‘स्माल काजेज कोर्ट’ का न्यायाधीश और अंततः सन 1893 में बॉम्बे उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनाया गया। सन 1885 से लेकर बॉम्बे उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने तक वे बॉम्बे विधान परिषद् में रहे। सन 1897 में रानाडे को सरकार ने एक वित्त समित्ति का सदस्य बनाया। उनकी इस सेवा के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘कम्पैनियन ऑफ़ द आर्डर ऑफ़ द इंडियन एम्पायर’ से नवाज़ा। उन्होंने ‘डेक्कन अग्रिकल्चरिस्ट्स ऐक्ट’ के तहत विशेष न्यायाधीश के तौर पर भी कार्य किया। वे बॉम्बे विश्वविद्यालय में डीन इन आर्ट्स भी रहे और विद्यार्थियों के जरूरतों को पूरी तरह से समझा। मराठी भाषा के विद्वान के तौर पर उन्होंने अंग्रेजी भाषा के उपयोगी पुस्तकों और कार्यों को भारतीय भाषाओँ में अनुवाद पर जोर दिया। उन्होंने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम को भी भारतीय भाषाओँ में छापने पर जोर दिया। रानाडे ने भारतीय अर्थव्यवस्था और मराठा इतिहास पर पुस्तकें लिखीं। उनका मानना था कि बड़े उद्योगों के स्थापना से ही देश का आर्थिक विकास हो सकता है और पश्चिमी शिक्षा आधुनिक भारत के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इंसानियत की मिशाल : एक दिन रानाडे अपने घर से न्यायालय जाने के लिए निकले। उन्होंने देखा कि एक वृद्ध महिला ने लकड़ियों का बोझ उठा रखा है। रानाडे को उस वृद्धा के शरीर की अंतिम अवस्था पर तरस आ गया और उन्होंने उससे पूछा- "क्या मैं आपकी कुछ सेवा कर सकता हूँ?" इस पर वृद्धा ने कहा- "लकड़ियों का यह गट्ठर मेरे सिर से उतार दो।" रानाडे ने गट्ठर नीचे उतार दिया। तभी रानाडे को पहचानने वाले उनके एक पड़ोसी ने उस वृद्ध महिला से कहा कि आप नहीं जानतीं, यह सेशन न्यायाधीश है और तुम इनसे ऐसा काम करवा रही हो। वृद्धा के कुछ भी बोलने के पहले ही रानाडे ने जवाब दिया- "मैं न्यायाधीश होने से पहले एक मनुष्य भी हूँ।" समाज सुधार कार्य : रानाडे ने समाज सुधार के कार्यों में आगे बढ़कर हिस्सा लिया। वे प्रार्थना समाज और ब्रह्म समाज आदि के सुधार कार्यों से अत्यधिक प्रभावित थे। सरकारी नौकरी में रहते हुए भी उन्होंने जनता से बराबर संपर्क बनाये रखा। दादाभाई नौरोजी के पथ प्रदर्शन में वे शिक्षित लोगों को देशहित के कार्यों की ओर प्रेरित करते रहे। प्रार्थना समाज के मंच से रानाडे ने महाराष्ट्र में अंधविश्वास और हानिकार रूढ़ियों का विरोध किया। धर्म में उनका अंधविश्वास नहीं था। वे मानते थे कि देश काल के अनुसार धार्मिक आचरण बदलते रहते हैं। उन्होंने स्त्री शिक्षा का प्रचार किया। वे बाल विवाह के कट्टर विरोधी और विधवा विवाह के समर्थक थे। उनके आर्थिक विचार : रानाडे एक अर्थशास्त्री भी थे । उन्होंने परम्परावादी अर्थशात्रियों की आलोचना की और उन्हें वास्तविक रूप से व्यक्तिवादी बताया । व्यक्ति का हित तब होगा, जब उत्पादन बढ़ेगा, वे ऐसा मानते थे । वे सर्वप्रथम ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने भारतीय अर्थशास्त्र शब्द का प्रयोग किया । वे भारत जैसे निर्धन देश के लिए संरक्षित व्यापार नीति बनाना चाहते थे । वे आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं का हल अलग-अलग चाहते थे । उन्होंने भारतीय उद्योगों के विनाश का कारण ब्रिटिश सरकार की गलत नीतियों को बताया । उनके राजनीतिक विचार : महादेव रानाडे एक उदारवादी नेता के साथ-साथ उदारवादी राष्ट्रीयता के पक्षधर थे । उन्होंने राजनीतिक अर्थव्यवस्था के सिद्धान्तों और उनकी तथाकथित, सार्वभौतिक सत्यता का जोरदार विरोध किया । वे मूल रूप से ”स्वतन्त्रता को प्रतिबन्धों का अभाव नहीं है” यह मानते थे । उनके अनुसार राजनीति एक संवैधानिक प्रक्रिया है । अत: जनता को अपने कष्टों के निवारण के लिए सरकार के पास आवेदन देना चाहिए । उपसंहार : महादेव गोविन्द रानाडे न केवल एक प्रसिद्ध वकील, अर्थशास्त्री, समाजसुधारक, राष्ट्रप्रेमी, राजनीतिज्ञ थे वरन् बम्बई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी थे । उन्होंने भारतीय अर्थशास्त्र पर निबन्ध नाम से भारत की आर्थिक दशा पर गहन विचार करके एक पुस्तक भी लिखी, जिसमें भारतीय समस्याओं का भारतीय ढंग से अध्ययन कर उसे दूर करने के लिए अमूल्य सुझाव दिये । ( 16 ) 1 Votes have rated this Naukri. 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