बीरबल साहनी जीवनी - Biography of Birbal Sahni in Hindi Jivani Published By : Jivani.org डॉ बीरबल साहनी एक भारतीय पुरावनस्पती वैज्ञानिक थे, जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के जीवावशेषों का अध्ययन कर इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे एक भूवैज्ञानिक भी थे और पुरातत्व में भी गहन रूचि रखते थे। उन्होंने लखनऊ में ‘बीरबल साहनी इंस्टिट्यूट ऑफ़ पैलियोबॉटनी’ की स्थापना की। उन्होंने भारत के वनस्पतियों का अध्यन किया और पुरावनस्पती शास्त्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन विषयों पर अनेकों पत्र और जर्नल लिखने के साथ-साथ बीरबल साहनी नेशनल अकैडमी ऑफ़ साइंसेज, भारत, के अध्यक्ष और इंटरनेशनल बोटैनिकल कांग्रेस, स्टॉकहोम, के मानद अध्यक्ष रहे। आरंभिक जीवन : बीरबल साहनी का जन्म 14 नवम्बर 1891 में हुआ था। उनके पिता का नाम प्रो. रुचीराम साहनी था। उनका जन्म शाहपुर जिले के भेङा नामक गॉव में हुआ था। भेढा, दरअसल नमक की चट्टानों से एवं पहाङियों से घिरा हुआ भूगर्भ विज्ञान का अजायब घर जैसा दिखने वाला गॉव था। बालक बीरबल का लालन पालन इस सुंदर रमणीय वातावरण में हुआ। उन्हे बचपन से ही जीवाष्म आदि देखने को मिले। पिता रुचीराम साहनी ने भी घर में बौद्धिक और वैज्ञानिक वातावरण बना रखा था। विद्वान, शिक्षा शास्त्री, समाज सेवी रुचीराम साहनी बालक बीरबल की वैज्ञानिक रुची को बचपन से ही बढाते रहे। बालक बीरबल भी बचपन से प्रकृति के पुजारी थे। बचपन से ही पहाडों की प्राकृतिक शोभा को निहारा करते थे। आसपास के रमणीय स्थल, हरे-भरे पेङ पौधे, दूर-दूर तक फैली सफेद पर्वत चोटियॉ उन्हे मुग्ध करती थीं। वे अक्सर आस पास के गॉव में सैर करने के लिए निकल जाते थे। बीरबल साहनी की प्रारंभिक शिक्षा लाहौर के सेन्ट्रल मॉडल स्कूल में हुई और उसके पश्चात वे उच्च शिक्षा के लिये गवर्नमेंट कॉलेज यूनिवर्सिटी, लाहौर, और पंजाब यूनिवर्सिटी गये। उनके पिता गवर्नमेंट कॉलेज यूनिवर्सिटी, लाहौर, में कार्यरत थे। प्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री प्रोफेसर शिवदास कश्यप से उन्होंने वनस्पति विज्ञानं सीखा। सन 1911 में बीरबल ने पंजाब विश्वविद्यालय से बी.एस.सी. की परीक्षा पास की। जब वे कॉलेज में थे तब आजादी की लड़ाई चल रही थी और वे भी इसमें अपना योगदान देना चाहते थे पर पिता उन्हे उच्च शिक्षा दिलाकर आई. सी. एस. अधिकारी बनाना चाहते थे इसलिए उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए बीरबल इंग्लैण्ड चले गये। सन 1914 में उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के इम्मानुएल कॉलेज से स्नातक की उपाधि ली और उसके बाद प्रोफेसर ए. सी. नेवारड (जो उस समय के श्रेष्ठ वनस्पति विशेषज्ञ थे) के सानिध्य में शोध कार्य में जुट गये। सन 1919 में उन्हें लन्दन विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ़ साइंस की उपाधि अर्जित की। प्रोफेसर रुचि राम साहनी ने उच्च शिक्षा के लिए अपने पांचों पुत्रों को इंग्लैंड भेजा तथा स्वयं भी वहां गए। वे मैनचेस्टर गए और वहां कैम्ब्रिज के प्रोफेसर अर्नेस्ट रदरफोर्ड तथा कोपेनहेगन के नाइल्सबोर के साथ रेडियोसक्रियता पर अन्वेषण कार्य किया। प्रथम महायुद्ध आरंभ होने के समय वे जर्मनी में थे और लड़ाई छिड़ने के केवल एक दिन पहले किसी तरह सीमा पार कर सुरक्षित स्थान पर पहुंचने में सफल हुए। वास्तव में उनके पुत्र बीरबल साहनी की वैज्ञानिक जिज्ञासा की प्रवृत्ति और चारित्रिक गठन का अधिकांश श्रेय उन्हीं की पहल एवं प्रेरणा, उत्साहवर्धन तथा दृढ़ता, परिश्रम औरईमानदारी को है। इनकी पुष्टि इस बात से होती है कि प्रोफेसर बीरबल साहनी अपने अनुसंधान कार्य में कभी हार नहीं मानते थे, बल्कि कठिन से कठिन समस्या का समाधान ढूंढ़ने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। इस प्रकार, जीवन को एक बड़ी चुनौती के रूप में मानना चाहिए, यही उनके कुटुंब का आदर्श वाक्य बन गया था। 1911 में बीरबल साहनी कैंब्रिज विश्वविद्यालय में पढने के लिए लन्दन चले गये. वहां वे बड़ी सादगी से रहते. उन्हें अध्ययन हेतु 90 रूपये वार्षिक छात्रवृति मिलती थी. जिसमे वे अपना सारा खर्च चलाते थे. कैंब्रिज में बीरबल साहनी प्रोफ़ेसर सिवर्ड के संपर्क में आये और उन्हें अपना गुरु मान लिया. प्रोफ़ेसर सिवर्ड भी अपने इस होनहार शिष्य को अत्यंत स्नेह देते थे. लन्दन की डी.एस.सी. (डॉक्टर ऑफ़ साइंस) की उपाधि प्राप्त कर बीरबल साहनी सन 1916 में भारत लौट आये और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान के प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए. उस समय बैठने के लिए उनके पास अलग कमरा भी नहीं था. वह बरामदे के एक कोने में बैठकर अपना काम करते. वहां वरिष्ठ अध्यापक स्नातक कक्षाओ को पढाना अपनी शान के खिलाफ मानते थे. इसके विपरीत प्रो. बीरबल साहनी स्नातक कक्षाओ के अध्यापन पर विशेष जोर देते थे. वे छात्रो से अत्यन्त स्नेह करते तथा हर समय उनकी सहायता को तत्पर रहते. छात्र भी उनकी उदारता, विद्वता और सादगी से अत्यन्त प्रभावित रहते. काशी के बाद श्री साहनी लखनऊ आ पहुंचे. 1920 में बीरबल साहनी का विवाह सावित्री से हुआ जो पंजाब के प्रतिष्ठित रायबहादुर सुन्दरदास की पुत्री थीं। बीरबल साहनी के शोधकार्यों में पत्नी सावित्री का हर संभव सहयोग रहा। जिवाश्मों का चित्र बनाना तथा उनकी फोटो खींचना वो बखुबी करती थीं। कुछ दिनों बनारस में पढाने के बाद प्रो. साहनी की नियुक्ति लाहौर स्थित पंजाब विश्व विद्यालय में हुई परंतु यहाँ वे कुछ ही समय रहे। बहुत जल्दी ही उनकी नियुक्ति लखनऊ विश्व विद्यालय में खुले नये वनस्पति शास्त्र के अध्यक्ष के रूप में हो गई। डॉ. बीरबल साहनी ने पहले जीवित वनस्पतियों पर शोध किया तद्पश्चात भारतीय वनस्पति अवशेषों पर शोध किये। उन्होने फॉसिल बजरहों और जीरा के दानों पर शोध की पहल की जो पहले जेरियत के नाम से जाना जाता था। उन्होने ये साबित किया कि असम तीसरे युग की मृद वनस्पतियों से भरपूर था। भारत में मौजूद फॉसिल बजरहों में व्याप्त वर्गीकरण की समस्या का समाधान करना, उनका प्रयास था। वे भारत में फॉसिल बजरहों और जीरा दानों का अग्रणी भण्डार कायम करना चाहते थे, जिससे फॉसिल के तुलनात्मक अध्ययन से शोध कार्य आगे बढा सके। उन्होने भारत में कोयले के भंडारो में सम्बंध स्थापित करने के लिए कोयले में मिलने वाले फॉसिल और जीरा दानों के लिए बकायदा एक तंत्र स्थापित किया । ओल्डहाइन, मार्स एवं फेस्टमिटल भू विशेषज्ञों ने राजमहल पहाङियों के ऊपरी गोंडवानी क्यारियों पर शोध किया था। बाद में बीरबल साहनी ने भी इस पर शोध प्रारंभ किया और अनेक अजीबो-गरीब एवं दिलचस्प पौधों के बारे में दुनिया को जानकारी दी। डॉ. बीरबल साहनी वनस्पति विज्ञान और भू विज्ञान दोनो के ही विशेषज्ञ थे। उन्होने दोनो ही प्रकार के समिश्रण से द्विफलिय परिणाम भी हासिल किये। प्रो. साहनी प्रयोगशाला के बजाय फील्ड में ही काम करना पसंद करते थे। उन्होने विश्व के वैज्ञानिकों को भारत की अद्भुत वनस्पतियों की जानकारी दी। वे प्रथम वनस्पति वैज्ञानिक थे जिन्होंने इंडियन गोंडवाना के पेड़-पौधों का विस्तार से अध्ययन किया। उन्होंने बिहार की राजमहल पहाड़ियों की भी खोजबीन की। यह स्थान प्राचीन वनस्पतियों के जीवाश्मो का खजाना है। वहां उन्होंने पौधों के कुछ नया जींस की खोज की। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण है — होमोजाइलों राजमहलिंस, राज महाल्या पाराडोरा और विलियम सोनिया शिवारडायना। उनके कुछ अविष्कारों में प्राचीन पौधों और आधुनिक पौधों के बीच विकासक्रम के संबंध को समझने में काफी सहायता की। उन्होंने एक नए समूह के जीवाशम पौधों की खोज कि। ये जिम्नोस्पमर्स हैं, चीड़ तथा उनकी जाति के दूसरे पेड़ जिन्हें पेंटोजाइलिज कहते हैं। इससे सारे संसार का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ। उनके पूरावनस्पति विज्ञान के अध्ययन ने कॉन्टिनेंटल ड्रिफ्ट महाद्वीपो के एक दूसरे से दूर खिसकने के सिद्धांत को भी बोल दिया है। इस सिद्धांत के अनुसार महाद्वीप पृथ्वी की सतह पर सदा उस तरफ खिसकते रहे हैं जैसे कोई नाव नदी के जल की सतह पर खिसकती है। ये अनेक विदेशी वैज्ञानिक संस्थाओं के सदस्य थे। लखनऊ में डा. साहनी ने पैलिओबोटैनिक इंस्टिट्यूट की स्थापना की, जिसका उद्घाटन पं. जवाहरलाल ने १९४९ ई. के अप्रैल में किया था। पैलिओबोटैनिक इंस्टिट्यूट के उद्घाटन के बाद शीघ्र ही साहनी महोदय की मृत्यु हो गई। इन्होंने वनस्पति विज्ञान पर पुस्तकें लिखी हैं और इनके अनेक प्रबंध संसार के भिन्न भिन्न वैज्ञानिक जर्नलों में प्रकाशित हुए हैं। डा. साहनी केवल वैज्ञानिक ही नहीं थे, वरन् चित्रकला और संगीत के भी प्रेमी थे। भारतीय विज्ञान कांग्रेस ने इनके सम्मान में 'बीरबल साहनी पदक' की स्थापना की है, जो भारत के सर्वश्रेष्ठ वनस्पति वैज्ञानिक को दिया जाता है। इनके छात्रों ने अनेक नए पौधों का नाम साहनी के नाम पर रखकर इनके नाम को अमर बनाए रखने का प्रयत्न किया है। उन्होने हङप्पा, मोहनजोदङो एवं सिन्धु घाटी की सभ्यता के बारे में अनेक निष्कर्ष निकाले। एक बार रोहतक टीले के एक भाग पर हथौङा मारा और उससे प्राप्त अवशेष से अध्ययन करके बता दिया कि, जो जाति पहले यहाँ रहती थी वह विशेष प्रकार के सिक्कों को ढालना जानती थी। उन्होने वो साँचे भी प्राप्त किये जिससे वो जाति सिक्के ढालती थी। बाद में उन्होने दूसरे देश जैसे कि, चीन, रोम, उत्तरी अफ्रिका में भी सिक्के ढालने की विशेष तकनिक का अध्ययन किया। उन्होने इस बात को भी साबित किया कि रोम के जमाने में 100 साल पहले का भारत उच्च स्तरिय सिक्के ढालने का साँचा बना चुका था। 1945 में इस संबन्ध में उनका एक लेख इंडियन सोसाइटी की एक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। म्रुत्यु : सितंबर 1948 में प्रो. साहनी जब अमेरीका से अपना भाषण देकर लौटे तो थोङा अस्वस्थ हो गये थे जिससे उन्हे काफी कमजोरी का एहसास हो रहा था। डॉक्टरों ने उन्हे अलमोङा में जाकर आराम करने की सलाह दी परंतु डॉ. साहनी अपने संस्थान की कामयबी का सपना पूर्ण करने के लिये लखनऊ से ही कार्य करते रहे। 10 अप्रैल 1949 को दिल का दौरा पङने से महान वैज्ञानक डॉ. बीरबल साहनी इहलोक छोङकर परलोक सिधार गये। ( 12 ) 1 Votes have rated this Naukri. 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