लाला हरदयाल जीवनी - Biography of Har Dayal in Hindi Jivani Published By : Jivani.org उनका जन्म 14 अक्टूबर 1884 को दिल्ली के पंजाबी परिवार में हुआ। हरदयाल, भोली रानी और गौरी दयाल माथुर की सांत संतानों में से छठी संतान थे। उनके पिता जिला न्यायालय के पाठक थे। लाला कोई उपनाम नही बल्कि कायस्थ समुदाय के बीच उप-जाति पदनाम था। साथ ही उनकी जाति में ज्ञानी लोगो को पंडित की उपाधि भी दी जाती है। जीवन के शुरुवाती दिनों में ही उनपर आर्य समाज का काफी प्रभाव पड़ा। साथ ही वे भिकाजी कामा, श्याम कृष्णा वर्मा और विनायक दामोदर सावरकर से भी जुड़े हुए थे। कार्ल मार्क्स, गुईसेप्पे मज्ज़िनी, और मिखैल बकुनिन से उन्हें काफी प्रेरणा मिली। कैम्ब्रिज मिशन स्कूल में पढ़कर उन्होंने सेंट स्टीफन कॉलेज, दिल्ली से संस्कृत में बैचलर की डिग्री हासिल की और साथ ही पंजाब यूनिवर्सिटी से उन्होंने संस्कृत में मास्टर की डिग्री भी हासिल की थी। 1905 में संस्कृत में उच्च-शिक्षा के लिए ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से उन्होंने 2 शिष्यवृत्ति मिली। इसके बाद आने वाले सालो में वे ऑक्सफ़ोर्ड से मिलने वाली शिष्यवृत्ति को त्यागकर 1908 में भारत वापिस आ गए और तपस्यमायी जीवन जीने लगे। लेकिन भारत में भी उन्होंने प्रसिद्ध अखबारों के लिए कठोर लेख लिखना शुरू किया, जब ब्रिटिश सरकार ने उनके कठोर लेखो को देखते हुए उनपर प्रतिबंध लगाया तो लाला लाजपत राय ने उन्हें भारत छोड़कर विदेश चले जाने की सलाह दी थी। 1910 में हरदयाल (Lala Har Dayal) सेन फ्रांसिस्को (अमेरिका) पहुचे | वहा उन्होंने भारत से गये मजदूरों को संगठित किया | “गदर” नामक पत्र निकाला | इसी के आधार पर पार्टी का नाम भी “गदर पार्टी” रखा गया | “गदर” पत्र ने संसार का ध्यान भारत में अंग्रेजो द्वारा किये जा रहे अत्याचारों की ओर दिलाया | नई पार्टी की कनाडा , चीन , जापान आदि में शाखाए खोली गयी | हरदयाल (Lala Har Dayal) इसके महासचिव थे | प्रथम विश्वयुद्ध आरम्भ होने पर लाला हरदयाल ने भारत ने सशस्त्र क्रान्ति को प्रोत्साहित करने के लिए कदम उठाये | जून 1915 में जर्मनी से दो जहाजो में भरकर बंदूके बंगाल भेजी गयी ,परन्तु मुखबिरों की सुचना पर दोनों जहाज जब्त कर लिए गये | हरदयाल (Lala Har Dayal) ने भारत के पक्ष का प्रचार करने के लिए स्विटजरलैंड , तुर्की आदि देशो की भी यात्रा की | जर्मनी ने उन्हें कुछ समय तक नजरबंद भी कर लिया गया था | वहा से वे स्वीडन चले गये उन्होंने अपने जीवन के 15 वर्ष बिताये | अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कही से सहयोग मिलने पर वे शांतिवाद का प्रचार करने लगे | इस विषय पर व्याख्यान देने के लिए वे फिलाडल्फिया गये थे | वे 1939 में भारत आने के लिए उत्सुक थे | उन्होंने अपनी पुत्री का मुंह भी नही देखा जो उनके देश छोड़ने के बाद पैदा हुयी थी पर यह हो न सका | भारत में उनके आवास की व्यवस्था हो चुकी थी पर देश की आजादी का यह फकीर 4 मार्च 1939 को कुर्सी में बैठा-बैठा विदेश में ही सदा के लिए सो गया | पोलिटिकल मिशनरी लंदन में लाला हरदयाल जी भाई परमानन्द, श्याम कृष्ण वर्मा आदि के सम्पर्क में आए। उन्हें अंग्रेज़ सरकार की छात्रवृत्ति पर शिक्षा प्राप्त करना स्वीकार नहीं था। उन्होंने श्याम कृष्ण वर्मा के सहयोग से ‘पॉलिटिकल मिशनरी’ नाम की एक संस्था बनाई। इसके द्वारा भारतीय विद्यार्थियों को राष्ट्र की मुख्यधारा में लाने का प्रयत्न करते रहे। दो वर्ष उन्होंने लंदन के सेंट जोंस कॉलेज में बिताए और फिर भारत वापस आ गए। सम्पादक हरदयाल जी अपनी ससुराल पटियाला, दिल्ली होते हुए लाहौर पहुँचे और ‘पंजाब’ नामक अंग्रेज़ी पत्र के सम्पादक बन गए। उनका प्रभाव बढ़ता देखकर सरकारी हल्कों में जब उनकी गिरफ़्तारी की चर्चा होने लगी तो लाला लाजपत राय ने आग्रह करके उन्हें विदेश भेज दिया। वे पेरिस पहुँचे। श्याम कृष्णा वर्मा और भीकाजी कामा वहाँ पहले से ही थे। लाला हरदयाल ने वहाँ जाकर ‘वन्दे मातरम्’ और ‘तलवार’ नामक पत्रों का सम्पादन किया। 1910 ई. में हरदयाल सेनफ़्राँसिस्को, अमेरिका पहुँचे। वहाँ उन्होंने भारत से गए मज़दूरों को संगठित किया। ‘ग़दर’ नामक पत्र निकाला। ग़दर पार्टी ग़दर पार्टी की स्थापना 25 जून, 1913 ई. में की गई थी। पार्टी का जन्म अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को के 'एस्टोरिया' में अंग्रेजी साम्राज्य को जड़ से उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से हुआ। ग़दर पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष सोहन सिंह भकना थे। इसके अतिरिक्त केसर सिंह थथगढ (उपाध्यक्ष), लाला हरदयाल (महामंत्री), लाला ठाकुरदास धुरी (संयुक्त सचिव) और पण्डित कांशीराम मदरोली (कोषाध्यक्ष) थे। ‘ग़दर’ नामक पत्र के आधार पर ही पार्टी का नाम भी ‘ग़दर पार्टी’ रखा गया था। ‘ग़दर’ पत्र ने संसार का ध्यान भारत में अंग्रेज़ों के द्वारा किए जा रहे अत्याचार की ओर दिलाया। नई पार्टी की कनाडा, चीन, जापान आदि में शाखाएँ खोली गईं। लाला हरदयाल इसके महासचिव थे। मृत्यु लाला जी को सन् १९२७ में भारत लाने के सारे प्रयास जब असफल हो गये तो उन्होंने इंग्लैण्ड में ही रहने का मन बनाया और वहीं रहते हुए डॉक्ट्रिन्स ऑफ बोधिसत्व नामक शोधपूर्ण पुस्तक लिखी जिस पर उन्हें लंदन विश्वविद्यालय ने पीएच०डी० की उपाधि प्रदान की। बाद में लन्दन से ही उनकी कालजयी कृति हिंट्स फार सेल्फ कल्चर छपी जिसे पढ़िये तो आपको लगेगा कि लाला हरदयाल की विद्वत्ता अथाह थी। अन्तिम पुस्तक ट्वेल्व रिलीजन्स ऐण्ड मॉर्डन लाइफ में उन्होंने मानवता पर विशेष बल दिया। मानवता को अपना धर्म मान कर उन्होंने लन्दन में ही आधुनिक संस्कृति संस्था भी स्थापित की। तत्कालीन ब्रिटिश भारत की सरकार ने उन्हें सन् १९३८ में हिन्दुस्तान लौटने की अनुमति दे दी। अनुमति मिलते ही उन्होंने स्वदेश लौटकर जीवन को देशोत्थान में लगाने का निश्चय किया। हिन्दुस्तान के लोग इस बात पर बहस कर रहे थे कि लाला जी स्वदेश आयेंगे भी या नहीं, किन्तु इस देश के दुर्भाग्य से लाला जी के शरीर में अवस्थित उस महान आत्मा ने फिलाडेल्फिया में ४ मार्च १९३८ को अपने उस शरीर को स्वयं ही त्याग दिया। लाला जी जीवित रहते हुए भारत नहीं लौट सके। उनकी अकस्मात् मृत्यु ने सभी देशभक्तों को असमंजस में डाल दिया। तरह-तरह की अटकलें लगायी जाने लगीं। परन्तु उनके बचपन के मित्र लाला हनुमन्त सहाय जब तक जीवित रहे बराबर यही कहते रहे कि हरदयाल की मृत्यु स्वाभाविक नहीं थी, उन्हें विष देकर मारा गया कुछ प्रसिद्ध क़िताबे हमारी शैक्षणिक समस्या (1922) शिक्षा पर विचार/सोच (1969) हिन्दू दौड़ की सामाजिक जीत राइटिंग ऑफ़ लाला हरदयाल (1920) जर्मनी और टर्की के 44 माह लाला हरदयालजी के स्वाधीन विचार (1922) अमृत में विष (1922) आत्म संस्कृति के संकेत (1934) विश्व धर्मो की झलक बोधिसत्व सिद्धांत (1970) ( 20 ) 3 Votes have rated this Naukri. 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