राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन जीवनी - Biography of Purushottam Das Tandon in Hindi Jivani Published By : Jivani.org राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन का जन्म इलाहाबाद के एक साधारण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम सालिकराम था, जो एकाउन्टेण्ड जनरल के दफ्तर में नौकरी किया करते थे । परिस्थितियों से संघर्ष करना उन्होंने राजर्षि को बचपन से सिखाया था । अपने विद्यार्थी जीवन में टण्डनजी काफी बुद्धिमान् थे । खेलों में भी उनकी अच्छी रुचि थी । जब वे 10 वर्ष के थे, तब एक बार घूमते वक्त अंग्रेज लड़कों से उनकी कहासुनी हो गयी थी । उन्होंने उनको खूब पीटा, तो कुछ अंग्रेज लड़कों का झुण्ड उनके समर्थन में लड़ पड़ा । बस फिर क्या था, राजर्षि उनसे भिड़ गये । अंग्रेज लड़कों को वहां से भागना पड़ा । कॉलेज में जब वे क्रिकेट टीम के कप्तान तथा खेल सेक्रेटरी थे, तो खेल प्रतियोगिता के दौरान पुलिस की व्यवस्था करना उन्हें नागवार गुजरा; क्योंकि उनके साथ-साथ विद्यार्थी भी इसे अपनी अप्रतिष्ठा का विषय समझते थे । खेल के समय पुलिसवालों ने जब एक लड़के को धक्का देकर अपमानित किया, तो वे 300 विद्यार्थियों को साथ ले हड़ताल पर बैठ गये । हालांकि पुलिसवाले इससे घबरा गये थे किन्तु इस घटना के बाद उनको अपनी इस निडरता का खामियाजा भुगतना पड़ा कि उन्हें कॉलेज से ही बाहर निकाल दिया गया । यह उनके जातीय स्वाभिमान की कीमत थी, जो उन्हें चुकानी पड़ी । राजनीतिक सफलताएँ : भारत की आज़ादी के बाद 1951 में हुए देश के पहले चुनाव में पाँच प्रत्याशी निर्विरोध चुने गए थे। इसके बाद 1952 में हुए उप-चुनाव में इलाहाबाद पश्चिम में कांग्रेस के पुरुषोत्तम दास टंडन निर्विरोध विजयी हुए। वर्ष 1962 में टिहरी गढ़वाल से वहाँ के राजा मानवेंद्रशाह ने जब चुनाव लड़ने का फैसला किया तो पुरुषोत्तम दास टंडन के मुकाबले कोई प्रत्याशी आगे नहीं आया। इस चुनाव में 'जनसंघ' के रंगीलाल ने परचा भरा था, लेकिन बाद में उन्होंने भी पर्चा वापस ले लिया। राजनैतिक जीवन : सन 1905 में उनके राजनीतिक जीवन का प्रारंभ हुआ जब बंगाल विभाजन के विरोध में समूचे देश में आन्दोलन हो रहा था। बंगभंग आन्दोलन के दौरान उन्होंने स्वदेशी अपनाने का प्रण किया और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार प्रारंभ किया। अपने विद्यार्थी जीवन में ही सन 1899 में वे कांग्रेस पार्टी का सदस्य बन गए थे। सन 1906 में उन्होंने अखिल भारतीय कांग्रेस समिति में इलाहाबाद का प्रतिनिधित्व किया। कांग्रेस पार्टी ने जलियाँवालाबाग कांड के जांच के लिए जो समिति बनाया था उसमे पुरुषोत्तम दास टंडन भी शामिल थे। वे ‘लोक सेवक संघ’ का भी हिस्सा रहे थे। 1920 और 1930 के दशक में उन्होंने असहयोग आन्दोलन और नमक सत्याग्रह में भाग लिया और जेल गए। सन 1931 में गाँधी जी के लन्दन गोलमेज सम्मलेन से वापस आने से पहले गिरफ्तार किये गए नेताओं में जवाहरलाल नेहरु की साथ-साथ वे भी थे। पुरुषोत्तम दास टंडन कृषक आंदोलनों से भी जुड़े रहे और सन 1934 में बिहार प्रादेशिक किसान सभा का अध्यक्ष भी रहे। वे लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित ‘लोक सेवा मंडल’ का भी अध्यक्ष रहे। वे यूनाइटेड प्रोविंस (आधुनिक उत्तर प्रदेश) के विधान सभा का 13 साल (1937-1950) तक अध्यक्ष रहे। उन्हें सन 1946 में भारत के संविधान सभा में भी सम्मिलित किया गया। आजादी के बाद सन 1948 में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए पट्टाभि सितारमैय्या के विरुद्ध चुनाव लड़ा पर हार गए। सन 1950 में उन्होंने आचार्य जे.बी. कृपलानी को हराकर कांग्रेस अध्यक्ष पद हासिल किया पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के साथ वैचारिक मतभेद के कारण उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया। जेल यात्रा व आन्दोलन : वर्ष 1930 में महात्मा गाँधी द्वारा चलाये जा रहे 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' के सिलसिले में वे बस्ती में गिरफ्तार हुए और उन्हें कारावास का दण्ड मिला। बाद के समय में उन्होंने इलाहाबाद में 'कृषक आन्दोलन' का संचालन किया। उन्होंने उत्तर प्रदेश में 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' का संचालन किया। किसानों में लगान की नाअदायगी का आन्दोलन भी चलाया। वे संयुक्त प्रांत व्यवस्थापिका परिषद् के सदस्य बने तथा 1937 ई. में इसके अध्यक्ष भी नियुक्त हुए। पुरुषोत्तम दास टंडन ने भारत के विभाजन का डटकर विरोध किया। 1931 में लंदन में आयोजित 'गोलमेज सम्मेलन' से गाँधीजी के वापस लौटने से पहले जिन स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार किया गया था, उनमें जवाहर लाल नेहरू के साथ पुरुषोत्तम दास टंडन भी थे। उन्होंने बिहार में कृषि को बढ़ावा देने के लिए काफ़ी कार्य किए थे। वर्ष 1933 में वे बिहार की 'प्रादेशिक किसान सभा' के अध्यक्ष चुने गए थे। 'बिहार किसान आंदोलन' के साथ सहानुभूति रखते हुए उन्होंने विकास के अनेक कार्य सम्पन्न कराये। भारतीय संस्कृति से प्रेम : पुरुषोत्तमदास टण्डन के बहु आयामी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को देखकर उन्हें 'राजर्षि` की उपाधि से विभूषित किया गया। १५ अप्रैल सन् १९४८ की संध्यावेला में सरयू तट पर वैदिक मंत्रोच्चार के साथ महन्त देवरहा बाबा ने आपको 'राजर्षि` की उपाधि से अलंकृत किया। कुछ लोगों ने इसे अनुचित ठहराया, पर ज्योतिर्मठ के श्री शंकराचार्य महाराज ने इसे शास्त्रसम्मत माना और काशी की पंडित सभा ने १९४८ के अखिल भारतीय सांस्कृतिक सम्मेलन के उपाधि वितरण समारोह में इसकी पुष्टि की। तब से यह उपाधि उनके नाम के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई स्वयं अलंकृत हो रही है। भारतीय संस्कृति के परम हिमायती और पक्षधर होने पर भी राजर्षि रूढ़ियों और अंधविश्वासों के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों एवं कुप्रथाओं पर भी अपने दो टूक विचार व्यक्त किये। उनमें एक अद्भुत आत्मबल था, जिससे वे कठिन से कठिन कार्य को आसानी से सम्पन्न कर लेते थे। बालविवाह और विधवा विवाह के सम्बंध में उनका मानना था कि "विधवा विवाह का प्रचार हमारी सभ्यता, हमारे साहित्य और हमारे समाज संगठन के मुख्य आधार पतिव्रत धर्म के प्रतिकूल हैं" उन्होंने स्पष्ट किया कि विधवा-विवाह की माँग इसलिए जोर पकड़ रही है, क्योंकि हमारे समाज में बाल-विवाह की शास्त्र विरुद्ध प्रणाली चल पड़ी है और बाल विधवाओं का प्रश्न ही भारतीय समाज की मुख्य समस्या है। अत: "बाल-विवाह की प्रथा को रोकना ही विधवा विवाह करने की अपेक्षा अधिक महत्व का कर्तव्य सिद्ध होता है।" ( 10 ) 0 Votes have rated this Naukri. 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