मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया जीवनी - Biography of M. Visvesvaraya in Hindi Jivani Published By : Jivani.org मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया का जन्म कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर में 15 सितंबर1860 को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीनिवास शास्त्री तथा माता का नाम वेंकाचम्मा था। उनके पूर्वज आंध्र प्रदेश के मोक्षगुंडम से यहाँ आकर बस गए थे। उनके पिता श्रीनिवास शास्त्री संस्कृत के विद्वान और आयुर्वेदिक चिकित्सक थे। जब बालक विश्वेश्वरैया मात्र 12 साल के थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गयी। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उनके जन्मस्थान पर स्थित एक प्राइमरी स्कूल में हुई। तत्पश्चात उन्होंने बैंगलोर के सेंट्रल कॉलेज में दाखिला लिया। धन के अभाव के चलते उन्हें यहाँ ट्यूशन करना पड़ता था। इन सब के बीच उन्होंने वर्ष 1881 में बीए की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया और उसके बाद मैसूर सरकार की मदद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पूना के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया। 19 वर्ष की उम्र में उन्होने 1881 में बी.ए. की परिक्षा पास कर ली थी। धन की कमी के कारण उनका दैनिक जीवन अस्त-व्यस्त था, वे रहते कहीं थे तो सोते कहीं थे। छोटे बच्चों को पढाकर किसी तरह अपना गुजारा कर लेते थे। जब उन्होने बी.ए. में प्रथम श्रेणीं हासिल की तो मैसूर सरकार की तरफ से छात्रवृत्ति मिलने लगी। जिससे उनकी आर्थिक स्थिती थोङी ठीक हो गई और वे पूना स्थित साइंस कॉलेज में पढने गये। वहाँ उन्होने यंत्रशास्त्र का अच्छा अध्ययन किया और 1883 में एल.सी.आई. और एफ.सी.आई. की परिक्षाओं में प्रथम स्थान प्राप्त किया। ये परिक्षाएं आज की बी.ई. परीक्षाओं के समकक्ष मानी जाती हैं। परिक्षाफल घोषित होते ही उनकी धूम मच गई। और तत्कालीन बंबई सरकार ने उन्हे सहायक अभियंता के रूप में नियुक्त कर दिया। उनकी पहली नियुक्ति नासिक में हुई, जहाँ उन्होने अपनी लगन, परिश्रम और ईमानदारी से अपने कार्यो को किया जिससे उनकी ख्याति बढने लगी। बङे-बङे अंग्रेज अभियंता उनका लोहा मानने लगे। उनकी पदोन्नति भी होती चली गई और उन्हे आधुनिक तरीके से जल-आपूर्ती का काम सौंपा गया। बङे नगरों में जल कहाँ से लाया जाए कहाँ एकत्रित किया जाए और किस तरह वितरित किया जाए ये उस समय चुनौती पूर्ण कार्य था। सिंध उस समय बंबई प्रान्त का हिस्सा था। उसका एक बङा हिस्सा रेगिस्तान था और पानी की भारी समस्या थी। कार्यक्षेत्र : अपनी शैक्षिक योग्यता के बल पर उन्होंने छात्रवृत्ति प्राप्त करने के साथ साथ पूरे मुम्बई विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की। इसी सफलता के आधार पर उन्हें मुम्बई में असिस्टैंट इंजीनियर के पद पर नियुक्ति मिली। उस समय ब्रिटिश शासन था। अधिकांश उच्च पदों पर अंग्रेज़ों की ही नियुक्ति होती थी। ऐसे में उच्च पद पर नियुक्त विश्वेश्वरैया ने अपनी योग्यता और सूझबूझ द्वारा बड़े बड़े अंग्रेज़ इंजीनियरों को अपनी योग्यता और प्रतिभा का लोहा मनवा दिया। अपने इस पद पर रहते हुए उन्होंने सबसे पहली सफलता प्राकृतिक जल स्रोत्रों से घर घर में पानी पहुँचाने की व्यवस्था करना और गंदे पानी की निकासी के लिए नाली - नालों की समुचित व्यवस्था करके प्राप्त की। प्रथम चरण में ही उन्होंने बैंगलोर, पूना, मैसूर, बड़ौदा, कराची, हैदराबाद, ग्वालियर, इंदौर, कोल्हापुर, सूरत, नासिक, नागपुर, बीजापुर, धारवाड़ सहित अनेक नगरों को प्रत्येक प्रकार के जल संकट से मुक्त करा दिया। सन् 1884 में विश्वेश्वरैया ने अपना सरकारी जीवन शुरू किया। यह वह समय था, जब राष्ट्रीयता की भावना बहुत से प्रतिष्ठित व्यक्तियों का ध्यान अपनी ओर खींच रही थी। महादेव गोविंद पाण्डे रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक राष्ट्रीयता की भावना को फैलाने में अग्रणी थे। वे सरकारी पदों पर भारतीयों को ज़्यादा स्थान दिलाने के लिए दवाब डाल रहे थे। वे जोश से भारतीय स्वतंत्रता की बात करते। विश्वेश्वरैया अपना कार्य करते रहे। लेकिन उनकी सहानुभूति स्वतंत्रता के कार्य के साथ थी। उन्हें लगा कि अनेक कार्य जो उन्हें सौंपे गये हैं, वे लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए आवश्यक हैं। मैसूर के दीवान : मैसूर राज्य में उनके योगदान को देखते हुए मैसूर के महाराजा ने उन्हें सन 1912 में राज्य का दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया। मैसूर के दीवान के रूप में उन्होंने राज्य के शैक्षिक और औद्योगिक विकास के लिए अथक प्रयास किया। उनके प्रयत्न से राज्य में कई नए उद्योग लगे। उनमें से प्रमुख थे चन्दन तेल फैक्टरी, साबुन फैक्टरी, धातु फैक्टरी, क्रोम टेनिंग फैक्टरी। उनके द्वारा प्रारंभ किये गए कई कारखानों में से सबसे महत्वपूर्ण भद्रावती आयरन एंड स्टील वर्क्स है। सर एम विश्वेश्वरैया स्वेच्छा से 1918 में मैसूर के दीवान के रूप में सेवानिवृत्त हो गए। वह खास मुसाफिर : यह उस समय की बात है जब भारत में अंग्रेजों का शासन था। खचाखच भरी एक रेलगाड़ी चली जा रही थी। यात्रियों में अधिकतर अंग्रेज थे। एक डिब्बे में एक भारतीय मुसाफिर गंभीर मुद्रा में बैठा था। सांवले रंग और मंझले कद का वह यात्री साधारण वेशभूषा में था इसलिए वहां बैठे अंग्रेज उसे मूर्ख और अनपढ़ समझ रहे थे और उसका मजाक उड़ा रहे थे। पर वह व्यक्ति किसी की बात पर ध्यान नहीं दे रहा था। अचानक उस व्यक्ति ने उठकर गाड़ी की जंजीर खींच दी। तेज रफ्तार में दौड़ती वह गाड़ी तत्काल रुक गई। सभी यात्री उसे भला-बुरा कहने लगे। थोड़ी देर में गार्ड भी आ गया और उसने पूछा, ‘जंजीर किसने खींची है?’ उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ‘मैंने खींची है।’ कारण पूछने पर उसने बताया, ‘मेरा अनुमान है कि यहां से लगभग एक फर्लांग की दूरी पर रेल की पटरी उखड़ी हुई है।’ गार्ड ने पूछा, ‘आपको कैसे पता चला?’ वह बोला, ‘श्रीमान! मैंने अनुभव किया कि गाड़ी की स्वाभाविक गति में अंतर आ गया है। पटरी से गूंजने वाली आवाज की गति से मुझे खतरे का आभास हो रहा है।’ गार्ड उस व्यक्ति को साथ लेकर जब कुछ दूरी पर पहुंचा तो यह देखकर दंग रहा गया कि वास्तव में एक जगह से रेल की पटरी के जोड़ खुले हुए हैं और सब नट-बोल्ट अलग बिखरे पड़े हैं। दूसरे यात्री भी वहां आ पहुंचे। जब लोगों को पता चला कि उस व्यक्ति की सूझबूझ के कारण उनकी जान बच गई है तो वे उसकी प्रशंसा करने लगे। गार्ड ने पूछा, ‘आप कौन हैं?’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘मैं एक इंजीनियर हूं और मेरा नाम है डॉ॰ एम. विश्वेश्वरैया।’ ( 10 ) 0 Votes have rated this Naukri. 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