इंदिरा गोस्वामी जीवनी - Biography of Mamoni Raisom Goswami in Hindi Jivani Published By : Jivani.org इंदिरा गोस्वामी (१४ नवम्बर १९४२ - नवम्बर, २०१०) असमिया साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर थीं। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित श्रीमती गोस्वामी असम की चरमपंथी संगठन उल्फा यानि युनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम और भारत सरकार के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने की राजनैतिक पहल करने में अहम भूमिका निभाई। इनके द्वारा रचित एक उपन्यास मामरे धरा तरोवाल अरु दुखन उपन्यास के लिये उन्हें सन् १९८२ में साहित्य अकादमी पुरस्कार (असमिया) से सम्मानित किया गया। 14 नवम्बर 1942 को जन्मी डॉ॰ गोस्वामी की प्रारंभिक शिक्षा शिलांग में हुई लेकिन बाद में वह गुवाहाटी आ गईं और आगे की पढ़ाई उन्होंने टी सी गर्ल्स हाईस्कूल और काटन कालेज एवं गुवाहाटी विश्वविद्यालय से पूरी की। उनकी लेखन प्रतिभा के दर्शन महज 20 साल में उस समय ही हो गए जब उनकी कहानियों का पहला संग्रह 1962 में प्रकाशित हुआ जबकि उनकी शिक्षा का क्रम अभी चल ही रहा था। वह देश के चुनिंदा प्रसिद्ध समकालीन लेखकों में से एक थीं। उन्हें उनके 'दोंतल हातिर उने खोवडा होवडा' ('द मोथ ईटन होवडाह ऑफ ए टस्कर'), 'पेजेज स्टेन्ड विद ब्लड और द मैन फ्रॉम छिन्नमस्ता' उपन्यासों के लिए जाना जाता है। उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी का परिचय उनके आत्मकथात्मक उपन्यास 'द अनफिनिशड आटोबायोग्राफी'में मिलता है। इसमें उन्होंने अपनी जिन्दगी के तमाम संघर्षों पर रोशनी डाली है। यहां तक कि इस किताब में उन्होंने ऐसी घटना का भी जिक्र किया है कि दबाव में आकर उन्होंने आत्महत्या करने जैसा कदम उठाने का प्रयास किया था। तब उन्हें उनके बेपरवाह बचपन और पिता के पत्रों की यादों ने ही जीवन दिया। शायद इसी ईमानदारी तथा आत्मालोचना के बल ने उन्हें असम के अग्रणी लेखकों की पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया। इंदिरा गोस्वामी के रूप जानते हैं और उन्हें जिंदा बचे लोगों में ऊपर का साहित्कार माना जाता था. भूपेन दा और मामोनी बाइडेउ का व्यक्तित्व और उनका रचना संसार पूरे देश को प्रभावित करता था. वे भले ही असमिया थे, लेकिन वे दोनों देश के लिए अमूल्य संपति थे. फिलहाल तो कला जगत में ऐसा कोई असमिया चेहरा नहीं है, जिसे पूरे देश जानता हो. वे दोनों असम के राष्ट्रीय चेहरे थे. एक सुर का प्रतिनिधित्व करते थे, दूसरा शब्दों का. मामोनी बाइडेव ने भले ही असमिया साहित्य को अपनी लेखनी से समृद्ध किया है, लेकिन उन्होंने उतना ही समृद्ध भारतीय भाषाओं को भी किया है. यह सच है कि वह असमिया में लिखती थीं, लेकिन उनके लेखन का दायरा राष्ट्रीय होता था. उन्होंने वृंदावन में अभिशप्त विधवाओं पर उपन्यास लिखा तो वाराणसी के घाटों का भी चित्रण किया. अपने शोध के विषय के रूप में कांदली रामायण और तुलसी दास के रामचरित मानस का तुलनात्मक अध्ययन को चुना और रामायणी बन गई. रामायण पर व्याख्यान देने लगी. इसके लिए वे देश-विदेश का भ्रमण किया और कई सम्मान प्राप्त किया. यह उनके व्यक्तित्व का एक अलग और महत्वपूर्ण आयाम था. उनकी रचनाओं का अधिकांश भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है. ज्ञानपीठ का पुरस्कार मिलने के बाद उनकी रचनाओं की ओर देश का ज्यादा ध्यान गया और उनकी अनुदूति रचनाओं का मूल्यांकन गंभीरता से होने लगा. इसलिए हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में उनकी रचनाओं को उतना ही चाव से पढ़ा जाता है. यही वजह है कि किसी भी भाषा का साहित्य प्रेमी उन्हें उनकी रचनाओं के माध्यम से जानता है. शिक्षा : गुवाहाटी विश्वविद्यालय से असमी में एम.ए. तथा 'माधव कांदले एवं गोस्वामी तुलसीदास की रामायण का तुलनात्मक अध्ययन' पर पी.एच.डी.। २९ नवम्बर २०११ को उनका देहांत हो गया। कामिलबुल्केसेमुलाकात रामायणी साहित्य पर उनका शोध बहुत सराहा गया था। वह फादर कामिल बुल्के से रांची में मिली थीं। ये बात सन् 1972 की है। फादर ने इंदिरा जी को राम साहित्य को समझने की नई प्रेरणा दी। इंदिरा जी के जीवन के हादसों के विवरण सुन कर उन्होंने उनसे कहा था, हमेशा अच्छे काम करते जाओ। अच्छे काम का फल कभी बुरा नहीं होता। इस अनोखी लेखिका का निजी जीवन घटनाओं-दुर्घटनाओं से भरा हुआ था। ग्यारह साल की उम्र में ही वे अवसाद का शिकार हो गई थीं। परिवार में या आसपास होने वाली कोई भी दुर्घटना उनके अवसाद को बढ़ा देती थी। किसी की मृत्यु देख कर वह घबरा उठती थीं। अपने पिता की मृत्यु उन्होंने बहुत ही करीब से देखी थी। हर बार अवसाद का सामना करने के लिए वे कलम उठा लेती थीं। उन्होंने कहा भी था- मेरे शरीर में ख़ून के रूप में स्याही बहती है, इसीलिए मैं जिंदा हूं। विवाह के सिर्फ अठारह महीने बाद ही उनके पति की मौत हो गई थी। इसके बाद अपना सामान और गहने वहीं बांट कर वे कश्मीर से असम लौट आई थीं। लेकिन लेखन कभी बंद नहीं हुआ। एक अभिजात परिवार में जन्म लेने और पलने-बढ़ने के बावजूद उनकी नजर हमेशा समाज के उपेक्षित और अपमानित लोगों पर ही रहती थी। शायद उन्हें अपने दुख, पीडि़त लोगों के जीवन में ही दिखते थे। उनके साहित्य में महलों में जीवन जीने वाले लोग नहीं, उनके आसपास झुग्गियों में जीने वाले लोगों की कहानियां दिखती हैं। उन लोगों के सुख, दुख, हंसना, रोना ही थी उनकी कलम की शक्ति और सृष्टि का आधार। मुख्य कृतियाँ उपन्यास चेनाबार स्रोत, नीलकंठी ब्रज, अहिरन, छिन्नमस्ता, मामरे धारा तरोवाल, दाताल हातीर उवे खोवा हावदा, तेज अरु धूलि धूसरित पृष्ठ, ब्लड-स्टेंड पेजिज, दक्षिणी कामरूप की गाथा कहानी संग्रह : चिनाकी मरम, कइना, हृदय एक नदीर नाम, प्रिय गल्पो आत्मकथा : आधा लेखा दस्तावेज शोध : रामायण फ्रॉम गंगा टू ब्रह्मपुत्र सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार, प्रिंसिपल प्रिंस क्लाउस लाउरेट पुरस्कार (डच सरकार), अंतरराष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार (फ्लोरिडा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय), साहित्य अकादमी पुरस्कार, असम साहित्य सभा पुरस्कार, भारत निर्माण पुरस्कार, सौहार्द पुरस्कार (उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान), कमलकुमारी फाउंडेशन पुरस्कार ( 15 ) 5 Votes have 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