मानवेन्द्र राय जीवनी - Biography of Manabendra Nath Roy in Hindi Jivani Published By : Jivani.org भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के राष्ट्रवादी क्रांतिकारी एवं प्रसिद्ध राजनीतिक सिद्धांतकार मानवेन्द्रनाथ राय (Manabendra Nath Roy) का जन्म 1887 में भारत के बंगाल नामक प्रान्त में हुआ था | मानवेन्द्रनाथ रॉय (Manabendra Nath Roy) का असली नाम नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य था | वे मेक्सिको और भारत दोनों के ही कम्युनिस्ट पार्टियों के संस्थापक थे | वे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की कांग्रेस के प्रतिनिधिमंडल में भी सम्मिलित थे | बंगाल में जन्मे मानवेन्द्रनाथ रॉय ने शिक्षण के आरम्भिक काल में ही क्रांतिकारी आन्दोलन में रूचि लेने लगे थे | हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के पहले ही मानवेन्द्रनाथ रॉय (Manabendra Nath Roy) क्रांतिकारी आन्दोलन में कूद पड़े थे | इनका वास्तविक नाम नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य था जिसे बाद में बदलकर मानवेन्द्र रॉय रखा गया था | पुलिस उनकी तलाश कर ही रही थी कि वो दक्षिणी पूर्वी एशिया की ओर निकल गये | जावा सुमात्रा से अमेरिका पहुच गये और वहा आतंकवादी गातिविधि का त्याग कर मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थक बन गये | मेक्सिको की क्रान्ति में उन्होंने एतेहासिक योगदान किया , जिससे उनकी प्रसिद्धी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो गयी | उनके कार्यो से प्रभावित होकर थर्ड इंटरनेशनल में इन्हें आमंत्रित किया गया था और उन्हें उसके अध्यक्षमंडल में स्थान दिया गया | 1921 में वे मास्को के प्राच्य विश्वविद्यालय कके अध्यक्ष नियुक्त किये गये | 1922 से 1928 के बीच उन्होंने कई पत्रों का सम्पादन किया , जिसमे वानगार्ड और मासेज मुख्य थे | सन 1927 ई. में चीनी क्रांति के समय मानवेन्द्र राय को वहा भेजा गया किन्तु इनके स्वतंत्र विचारों से वहा के नेता सहमत न हो सके और मतभेद उत्पन्न हो गया | रूसी नेता इस पर इनसे क्रुद्ध हो गये और स्टालिन के राजनितिक कोप का इनको शिकार बनना पड़ा | ज्ञान प्रक्रिया अपनी उपर्युक्त भौतिकवादी विचारधारा के अनुरूप ही राय ने ज्ञान प्राप्ति की परीक्षा की व्याख्या की है। ये विज्ञानवाद तथा प्रत्ययवाद का खंडन करते हुए केवल वस्तुवाद के आधार पर ज्ञान की उत्पत्ति की व्याख्या करते हैं। उनका विचार है कि इंद्रिय प्रत्यक्ष ही सम्पूर्ण मानवीय ज्ञान का आदि स्रोत है। हम अपने अनुभव के द्वारा ही भौतिक जगत् का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, आप्त-वाक्य हमें असंदिग्ध ज्ञान कभी नहीं प्रदान करते। इन्द्रिय प्रत्यय द्वारा हम वस्तुओं को उसी रूप में जानते हैं, जिस रूप में वे हैं। कांट के विपरीत राय का मत है कि 'वास्तविक जगत्' तथा 'प्रतीतिक जगत्' में कोई भेद नहीं है, हम अपने अनुभव द्वारा जिस जगत् को जानते हैं, वही वास्तविक जगत् है। इसी प्रकार के बकली के मत का भी खंडन करते हैं कि भौतिक वस्तुओं का अस्तित्व हमारे प्रत्ययों पर ही निर्भर है। राय का कथन है कि हम प्रत्ययों को नहीं बल्कि प्रत्यक्षत: बाह्य वस्तुओं को ही जानते हैं। बाह्य वस्तुओं का हमारे मन से पृथक् और स्वतंत्र अस्तित्व है, अत: ज्ञान मीमांसा की दृष्टि से बकली का यह मत दोषपूर्ण है कि अंतत: भौतिक जगत् का अस्तित्व हमारे मानसिक जगत् पर ही निर्भर है। राय के अनुसार बाह्य वस्तुओं के अस्तित्व की व्याख्या के लिए ईश्वर की सत्ता का आधार लेना आवश्यक है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राय भौतिकवाद, इंद्रियानुभववाद तथा वस्तुवाद के प्रबल समर्थक हैं। परन्तु, जहाँ तक हमें ज्ञात है, उन्होंने इन तीनों दार्शनिक सिद्धांतों की अनेक बहुचर्चित कठिनाईयों का निराकरण करने के लिए कोई संतोषप्रद समाधान प्रस्तुत नहीं किया। उदाहरणार्थ, राय तथा अन्य भौतिकवादियों की इस मान्यता का समर्थन करना कठिन है कि चेतना की उत्पत्ति जड़ पुद्गल से ही हुई है। दर्शन एवं चिन्तन मानवेन्द्र नाथ राय का आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन में विशिष्ट स्थान है। राय का राजनीतिक चिंतन लम्बी वैचारिक यात्रा का परिणाम है। वे किसी विचारधारा से बंधे हुए नहीं रहे। उन्होंने विचारों की भौतिकवादी आधार भूमि और मानव के अस्तित्व के नैतिक प्रयोजनों के मध्य समन्वय करना आवश्यक समझा। जहाँ उन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था की कटु आलोचना की, वहीं मार्क्सवाद की आलोचना में भी पीछे नहीं रहे। राय ने सम्पूर्ण मानवीय दर्शन की खोज के प्रयत्न के क्रम में यह निष्कर्ष निकाला कि विश्व की प्रचलित आर्थिक और राजनीतिक प्रणालियाँ मानव के समग्र कल्याण को सुनिश्चित नहीं करतीं। पूँजीवाद, मार्क्सवाद, गाँधीवाद तथा अन्य विचारधाओं में उन्होंने ऐसे तत्वों को ढूँढ निकाला जो किसी न किसी रूप में मानव की सत्ता, स्वतंत्रता, तथा स्वायत्तता पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। राय ने अपने नवीन मानववादी दर्शन से मानव को स्वयं अपना केन्द्र बताकर मानव की स्वतंत्रता एवं उसके व्यक्तित्व की गरिमा का प्रबल समर्थन किया है। वस्तुतः बीसवीं सदी में फासीवादी तथा साम्यवादी समग्रतावादी राज्य-व्यवस्थाओं ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं व्यक्तित्व का दमन किया और उदारवादी लोकतन्त्र में मानव-कल्याण के नाम पर निरन्तर बढ़ती केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति से सावधान किया। राय ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता एवं व्यक्तित्व की गरिमा के पक्ष में जो उग्र बौद्धिक विचार दिये हैं, उनका आधुनिक युग के लिए विशिष्ट महत्व है। उनके विचार: एक तरफ तो वे कट्टर मार्क्सवादी थे, तो दूसरी ओर मार्क्सवाद का विरोध करते हुए उन्होंने नवमानववाद की स्थापना की । उनका विचार था कि- ”अच्छा व्यक्ति अच्छे समाज की रचना कर सकता है । व्यक्ति समाज का आधार है ।” पूंजीवाद को सभी बुराइयों की जड़ मानते थे । राज्य केवल साधन है, साध्य नहीं, ये उनके विचार थे । राष्ट्रवाद को फासीवाद का प्रेरक मानते हुए वे उसके कट्टर आलोचक थे । कुछ समय पश्चात् उन्हें साम्यवादी विचारधारा से इसीलिए चिढ़ हो गयी; क्योंकि साम्यवादी अन्तर्राष्ट्रीयवाद का प्रचार करते हुए व्यवहार में राष्ट्रवादी थे । उनका राजनैतिक दर्शन वैज्ञानिक सिद्धान्त पर आधारित था । वे धार्मिक आडम्बरों में अविश्वास रखते थे । भौतिकतावादी विचारों के वे समर्थक थे । कुछ अर्थों में वे यथार्थवादी भौतिकता से प्रेरित थे । समाजवाद में उनका विश्वास था । आर्थिक विकेन्द्रीयकरण के साथ-साथ वे मानव स्वतन्त्रता के समर्थक थे । गुट निरपेक्षतावादी नीति को उन्होंने श्रेष्ठ माना । उपसंहार: श्री मानवेन्द्रनाथ राय नवमानववाद को सर्वश्रेष्ठ मानते थे, जिसके द्वारा मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता बन सकता है, ऐसा उनका विचार था । इस वाद में न तो राष्ट्रवाद की भावना का समावेश है और न ही रंगभेद का । उन्होंने विचारों में मानव की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता को सर्वोपरि माना है । श्री राय की इस मान्यता के समर्थक और आलोचक दोनों ही थे, किन्तु उनका यह नवमानवतावादी दर्शन अपना विशिष्ट स्थान रखता है । ( 20 ) 0 Votes have rated this Naukri. 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