प्रफुल्ल चन्द्र जीवनी - Biography of Prafull Chandra Ray in Hindi Jivani Published By : Jivani.org जन्म भारत के पूर्वी बंगाल के खुलना जिले में रुरौली कतिपरा नामक ग्राम में 2 अगस्त, 1861 ई. को हुआ था।खरौली जिले का रुरौली गाँव पूरे विश्व में विख्यात रहा, यहाँ के राजाओं और जमिंदारों ने दिल्ली के सुल्तानों और उनके नवाबों की सत्ता कभी नही मानी। इसी गॉव में हरिशचन्द्र राय के घर बालक प्रफुल्ल का जन्म हुआ। पिता हरिश्चन्द्र राय स्वयं भी शिक्षित थे और अपने गॉव में प्राथमिक विद्यालय भी चलाते थे। बालक प्रफुल्ल की प्ररंभिक शिक्षा इसी विद्यालय में हुई। अंग्रेजी, बंगला, फारसी भाषाओं के ज्ञाता हरिश्चन्द्र राय उस समय के प्रमुख सामज सुधारक ईश्वर चन्द्र विद्यासागर से प्रभावित थे। पिता के अच्छे संस्कारों की छाया में प्रफुल्ल का बचपन युवावस्था की ओर बढ रहा था। प्रफुल्ल को बचपन से पढने का बहुत शौक था वे पिता की लाइब्रेरी में संग्रहित लगभग सभी पुस्तकों को पढ चुके थे। “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”, यह कहावत आचार्य राय पर पूरी तरह खरी उतरती है। बारह वर्ष की आयु में, जब बच्चे परियों की कहानी का आनंद लेते हैं, उन्हें गैलीलियो और सर आइजक न्यूटन जैसे वैज्ञानिकों की जीवनियां पढ़ने का शौक था। नियम से प्रतिदिन समाचार भी पढा करते थे। 9 वर्ष की आयु में 1870 में कोलकता के हेयर स्कूल में आगे की पढाई प्रारंभ की। वहाँ उन्हे अपने ग्रामीण रहन सहन के कारण हंसी का पात्र बनना पङा जिसकी वजह से वो अलग रह कर अपनी पढाई पर ज्यादा ध्यान देते। वैज्ञानिकों के जीवन चरित्र उन्हे बहुत प्रभावित करते थे। जब उन्होने एक अंग्रेज लेखक की पुस्तक में वर्णित 1000 महान लोगों की सुची में सिर्फ एक भारतीय राजा राम मोहन राय का नाम देखा तो उन्होने भी महान बनने का निर्णय लिया। हरिश्चंद्र रे एक उदार विचार वाले व्यक्ति थे। वे बच्चों की बेहतर शिक्षा के हिमायती थे। इसीलिए जब उन्होंने देखा कि गाँव के विद्यालय में बच्चों की शिक्षा-दीक्षा ठीक से नहीं हो पा रही है, तो वे सन 1870 में कोलकाता आ गये। वहाँ पर रे का दाखिला हेयर स्कूल में हुआ। लेकिन इस स्कूल में भी रे का अनुभव अच्छा नहीं रहा। वहाँ के बच्चे बहुत शरारती थे। वे ग्रामीण परिवेश से आने के कारण रे को तरह-तरह के नामों से चिढ़ाते थे। उस समय रे कक्षा 4 में पढ़ रहे थे। अभी यह सब चल ही रहा था कि अचानक रे की तबियत खराब हो गयी। उन्हें पेचिश की बीमारी हो गयी, जिससे उन्हें न चाहते हुए भी स्कूल छोड़ना पड़ा। आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय भारत में रसायन विज्ञान के जनक माने जाते हैं। वे एक सादगीपसंद तथा देशभक्त वैज्ञानिक थे जिन्होंने रसायन प्रौद्योगिकी में देश के स्वावलंबन के लिए अप्रतिम प्रयास किए। वर्ष 2011 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय रसायन वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। भारत में इसका महत्व इसलिए और बढ़ जाता है क्योंकि यह वर्ष एक मनीषी तथा महान भारतीय रसायनविज्ञानी आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय के जन्म का 150वाँ वर्ष भी है। आचार्य राय भारत में वैज्ञानिक तथा औद्योगिक पुनर्जागरण के स्तम्भ थे। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में आजादी की लड़ाई के साथ साथ देश में ज्ञान-विज्ञान की भी एक नई लहर उठी थी। इस दौरान अनेक मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने जन्म लिया। इसमे जगदीश चंद्र बसु, प्रफुल्ल चंद्र राय, श्रीनिवास रामानुजन और चंद्रशेखर वेंकटरामन जैसे महान वैज्ञानिकों का नाम लिया जा सकता है। इन्होंने पराधीनता के बावजूद अपनी लगन तथा निष्ठा से विज्ञान में उस ऊंचाई को छुआ जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी। रसायन के लिए समर्पित जीवन आचार्य राय एक समर्पित कर्मयोगी थे। उनके मन में विवाह का विचार भी नहीं आया और समस्त जीवन उन्होंने प्रेसीडेंसी कालेज के एक नाममात्र के फर्नीचर वाले कमरे में काट दिया। प्रेसीडेंसी कालेज में कार्य करते हुए उन्हें तत्कालीन महान फ्रांसीसी रसायनज्ञ बर्थेलो की पुस्तक "द ग्रीक एल्केमी" पढ़ने को मिली। तुरन्त उन्होंने बर्थेलो को पत्र लिखा कि भारत में भी अति प्राचीनकाल से रसायन की परम्परा रही है। बर्थेलो के आग्रह पर आचार्य ने मुख्यत: नागार्जुन की पुस्तक "रसेन्द्रसारसंग्रह" पर आधारित प्राचीन हिन्दू रसायन के विषय में एक लम्बा परिचयात्मक लेख लिखकर उन्हें भेजा। बर्थेलाट ने इसकी एक अत्यंत विद्वत्तापूर्ण समीक्षा "जर्नल डे सावंट" में प्रकाशित की, जिसमें आचार्य राय के कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई थी। इससे उत्साहित होकर आचार्य ने अंतत: अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "हिस्ट्री ऑफ हिन्दू केमिस्ट्री" का प्रणयन किया जो विश्वविख्यात हुई और जिनके माध्यम से प्राचीन भारत के विशाल रसायन ज्ञान से समस्त संसार पहली बार परिचित होकर चमत्कृत हुआ। स्वयं बर्थेलाट ने इस पर समीक्षा लिखी जो "जर्नल डे सावंट" के १५ पृष्ठों में प्रकाशित हुई। १९१२ में इंग्लैण्ड के अपने दूसरे प्रवास के दौरान डरहम विश्वविद्यालय के कुलपति ने उन्हें अपने विश्वविद्यालय की मानद डी.एस.सी. उपाधि प्रदान की। रसायन के क्षेत्र में आचार्य ने १२० शोध-पत्र प्रकाशित किए। मरक्यूरस नाइट्रेट एवं अमोनियम नाइट्राइट नामक यौगिकों के प्रथम विरचन से उन्हें अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान आचार्य राय ने स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रिय भागीदारी निभाई। गोपाल कृष्ण गोखले से लेकर महात्मा गाँधी तक से उनका मिलना जुलना था। कलकत्ता में गांधी जी की पहली सभा कराने का श्रेय डा. राय को ही जाता है। राय एक सच्चे देशभक्त थे उनका कहना था;- "विज्ञान प्रतीक्षा कर सकता है, पर स्वराज नहीं"। वह स्वतंत्रता आन्दोलन में एक सक्रिय भागीदार थे। उन्होंने असहयोग आन्दोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के रचनात्मक कार्यों में मुक्तहस्त आर्थिक सहायता दी। उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था- "मैं रसायनशाला का प्राणी हूँ। मगर ऐसे भी मौके आते हैं जब वक्त का तकाज़ा होता है कि टेस्ट-ट्यूब छोड़कर देश की पुकार सुनी जाए"। निधन आचार्य प्रफुल्लचंद्र राय का 16 जून, 1944 को कलकत्ता में देहावसान हो गया। उनके बारे में यूनिवर्सिटी कॉलेज आफ साइंस, लंदन के प्रोफेसर एफ. जी. डोनान ने लिखा था : "सर पी. सी. राय जीवन भर केवल एक संकीर्ण दायरे में बँधे प्रयोगशाला-विशेषज्ञ बन कर नहीं रहे। अपने देश की तरक्की तथा आत्मनिर्भरता हमेशा उनके आदर्श रहे। उन्होंने अपने लिए कुछ नहीं चाहा, तथा सादगी एवं मितव्ययिता का कठोर जीवन जीया। राष्ट्र एवं समाज सेवा उनके लिए सर्वोपरि रहे। वे भारतीय विज्ञान के प्रणेता थे"। उन्होंने सन्न्यस्त तथा व्रती का जीवन बिताया। उन्होंने परिवार नहीं बसाया, तथा आजीवन अविवाहित रहे। सांसारिक बंधनों तथा मोहमाया एवं परिग्रह से अपने को कोसों दूर रखा। अपने देहावसान से पूर्व आचार्य प्रफुल्ल चंद्र राय ने अपनी समस्त संपत्ति सामाजिक कार्यों के लिए दान कर दी थी। ऐसा था ऋषितुल्य एवं प्रेरणादायी उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व। सचमुच, वे भारतीय विज्ञान जगत् के ज्वाजल्यमान नक्षत्र हैं। ( 12 ) 0 Votes have rated this Naukri. Average Rating is 0