कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जीवनी - Biography of Kanaiyalal Maneklal Munshi in Hindi Jivani Published By : Jivani.org कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी (Kanaiyalal Maneklal Munshi) बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे | उन्होंने देश के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लिया , संविधान निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी , उन्होंने राज्य और केंद्र सरकार के मंत्री तथा उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के रूप में काम किया | उपन्यासकार और नाटककार के रूप में भी उन्होंने बहुत ख्याति अर्जित की | भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए उनके द्वारा स्थापित “भारतीय विद्या भवन” आज भी महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है | श्री मुंशी (Kanaiyalal Maneklal Munshi) का जन्म 30 दिसम्बर 1887 को दक्षिण गुजरात के भड़ोच नगर में हुआ था | आरम्भिक शिक्षा के बाद ये बडौदा कॉलेज में भर्ती हुए जहा उन्हें अरविन्द घोष जैसे क्रांतिकारी प्राध्यापक पढाने के लिए मिले | शिक्षा पुरी करने के बाद मुंशी ने वकालत शुरू की और अपनी सूझ-बुझ तथा कानूनी ज्ञान के कारण उनकी बहुत प्रसिद्धि हुयी | वे गुजराती और अंग्रेजी के अतिरिक्त फ्रेंच और जर्मन भाषा के भी अच्छे ज्ञाता थे | वैदिक और संस्कृत साहित्य का उन्होंने गहन अध्ययन किया था | वे शीघ्र ही सार्वजनिक कार्यो में भी रूचि लेने लगे और 1927 में मुम्बई प्रांतीय कौंसिल के सदस्य चुने गये | 1928 के बारदोली सत्याग्रह के बाद वे गांधीजी के प्रभाव में आये | 1930 के नमक सत्याग्रह में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया | 1937 में श्री मुंशी को मुम्बई की पहली कांग्रेस सरकार में गृहमंत्री बनाया गया | 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह के बाद वे फिर गिरफ्तार हो गये परन्तु इसके बाद आत्मरक्षा के लिए हिंसा के प्रयोग के प्रश्न पर मतभेद हो जाने के कारण वे कांग्रेस से अलग हो गये | कन्हैयालाल जी स्वतंत्राता सेनानी थे, बंबई प्रांत और केन्द्रीय मंत्रिमंडल में मंत्री थे, राज्यपाल रहे, अधिवक्ता थे, लेकिन उनका नाम सर्वोपरि भारतीय विद्या भवन के संस्थापक के रूप में ख्यात है। 7 नवंबर, 1938 को भारतीय विद्या भवन की स्थापना के समय उन्होंने एक ऐसे स्वप्न की चर्चा की थी जिसका प्रतिफल यह भा.वि.भ. होता- यह स्वप्न था वैसे केन्द्र की स्थापना का, ‘जहाँ इस देश का प्राचीन ज्ञान और आधुनिक बौद्धिक आकांक्षाएँ मिलकर एक नए साहित्य, नए इतिहास और नई संस्कृति को जन्म दे सकें।’ कन्हैयालाल जी जड़ता के विरोधी और नवीनता के पोषक थे। उनकी नजर में ‘भारतीय संस्कृति कोई जड़ वस्तु नहीं थी।’ वे भारतीय संस्कृति को ‘चिंतन का एक सतत प्रवाह’ मानते थे। वे इस विचार के पोषक थे कि अपनी जड़ों से जुड़े रहकर भी हमें बाहर की हवा का निषेध नहीं करना चाहिए। वे अपनी लेखनी में भी सांस्कृतिक पुनर्जागरण की बात कहते रहते थे। वे गुजराती और अँग्रेजी के अच्छे लेखक थे, लेकिन राष्ट्रीय हित में हमेशा हिंदी के पक्षधर रहे। उन्होंने ‘हंस’ पत्रिका के संपादन में प्रेमचंद का सहयोग किया। वे राष्ट्रीय शिक्षा के समर्थक थे। वे पश्चिमी शिक्षा के अंधानुकरण का विरोध करते थे। मंत्री के रूप में उनका एक महत्वपूर्ण कार्य रहा - वन महोत्सव आरंभ करना। वृक्षारोपण के प्रति वे काफी गंभीर थे। मुन्शी जी वस्तुतः और मूलतः भारतीय संस्कृति के दूत थे। सांस्कृतिक एकीकरण के बिना उनकी नजर में किसी भी सामाजिक-राजनीतिक कार्यक्रम का कोई महत्व नहीं था। संविधान-निर्माण में योगदान स्वतंत्र भारत के लिए नये संविधान-निर्माण के रचयिताओं में आदर्शवाद व यथार्थवाद के मिश्रण की आवश्यकता थी। राजनीतिक अंतर्दृष्टि और कुशाग्र कानूनी बुद्धि से परिपूर्ण कन्हैयालाल मुंशी इस कार्य में सबसे दक्ष माने गये। संविधान-निर्माण के लिए बनायी गयी समितियों में से मुंशी सबसे ज़्यादा ग्यारह समितियों के सदस्य बनाये गये। डॉ. भीमराव आम्बेडकर की अध्यक्षता में बनायी गयी संविधान निर्माण की प्रारूप समिति में कानून में ‘हर व्यक्ति को समान संरक्षण’ के सिद्धांत का मसविदा मुंशी और आम्बेडकर ने संयुक्त रूप से लिखा था। इसी प्रकार कई अड़चनों और व्यवधानों के बावजूद हिंदी तथा देवनागरी लिपि को नये भारतीय संघ की राजभाषा का स्थान दिलाने में मुंशी ने सबसे प्रमुख भूमिका निभायी। 14 सितम्बर, 1949 को संविधान सभा के इस निर्णय को प्रति वर्ष हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। संविधान-निर्माण में कन्हैयालाल मुंशी का सबसे ज़्यादा ध्यान एक मज़बूत केंद्र के अंतर्गत संघीय प्रणाली विकसित करना था, देसी रियासतों के भारत में विलय की मुश्किलों के संदर्भ में और असंख्य विविधताओं वाले इस नव-स्वतंत्र राष्ट्र में मुंशी सहित अन्य संविधान-निर्माताओं ने एक मज़बूत केंद्रीय सरकार को अपरिहार्य माना। कन्हैयालाल मुंशी के लिए भारतीय संविधान की पहली पंक्ति ‘इण्डिया दैट इज़ भारत’ वाक्यांश का अर्थ केवल एक भूभाग नहीं बल्कि एक अंतहीन सभ्यता है, ऐसी सभ्यता जो अपने आत्म-नवीनीकरण के ज़रिये सदैव जीवित रहती है। उनकी साहित्यिक देन: के०एम० मुंशीजी ने गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, तमिल, मराठी, अंग्रेजी आदि भाषाओं में 127 पुस्तकें लिखीं । वे गुजरात के श्रेष्ठ साहित्यकार रहे हैं । उनकी पहली कहानी ”मारी कमला” 1912 में स्त्री बोध नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई । उन्होंने ”गुजरात” का भी सम्पादन किया । उपन्यास, नाटक, कहानी, निबन्ध, आत्मकथा, जीवनी आदि पर उन्होंने अपनी लेखनी चलायी । उपसंहार: मुंशीजी गुजरात के ही नहीं, सारे देश के अमूल्य रत्न थे । शिक्षा जगत्, साहित्य जगत्, राजनीति, धर्म, दर्शन, इतिहास के क्षेत्र में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए समूचा भारतवर्ष उनका ऋणी रहेगा । वन महोत्सव का प्रारम्भ कर वृक्षारोपण के माध्यम से प्रकृति के प्रति उनका यह प्रेम समस्त मानव समुदाय के लिए उपयोगी रहेगा । प्रमुख कार्य v १९०४- भरूच में मफत पुस्तकालय की स्थापना v १९१२ – ‘भार्गव’ मासिक की स्थापना v १९१५-२० 'होमरुल लीग’ के मंत्री v ‘वीसमी सदी’ मासिक में प्रसिद्ध धारावाहिक नवलकथा लिखा v १९२२- ‘गुजरात’ मासिक का प्रकाशन v १९२५- मुंबइ धारासभा में चुने गये v १९२६- गुजराती साहित्य परिषदना बंधारणना घडवैया v १९३०- भारतीय राष्ट्रीय कोंग्रेस में प्रवेश v १९३०-३२ – स्वातंत्र्य संग्राम में भाग लेने के कारण कारावास v १९३३- कोंग्रेसना बंधारणनुं घडतर v १९३७-३९ – मुंबई राज्य के गृहमंत्री v १९३८- भारतीय विद्याभवन की स्थापना v १९३८- करांची में गुजराती साहित्य परिषद के प्रमुख v १९४२-४६- गांधीजी के साथ मतभेद और कोंग्रेस त्याग और पुनः प्रवेश v १९४६- उदयपुर में अखिल भारत हिन्दी साहित्य परिषद के प्रमुख v १९४८- सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार v १९४८- हैदराबाद के भारत में विलय में महत्वपूर्ण भूमिका v १९४८- भारतनुं बंधारण समिति के सदस्य v १९५२-५७ उत्तर प्रदेश के राज्यपाल v १९५७- राजाजी के साथ स्वतंत्र पार्टी के उपप्रमुख v १९५४- विश्व संस्कृत परिषद की स्थापना और उसके प्रमुख v १९५९ - ‘समर्पण’ मासिक का प्रारंभ v १९६०- राजनीति से सन्यास ( 20 ) 0 Votes have rated this Naukri. 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