डॉ रामविलास शर्मा जीवनी – Biography of Ram Vilas Sharma in Hindi Jivani Published By : Jivani.org उन्नाव जिला के ऊँचगाँव सानी में जन्मे डॉ॰ रामविलास शर्मा ने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. तथा पी-एच.डी. की उपाधि सन् १९३८ में प्राप्त की। सन् १९३८ से ही आप अध्यापन क्षेत्र में आ गए। १९४३ से १९७४ तक आपने बलवंत राजपूत कालेज, आगरा में अंग्रेजी विभाग में कार्य किया और अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष रहे। इसके बाद कुछ समय तक कन्हैयालाल माणिक मुंशी हिन्दी विद्यापीठ, आगरा में निदेशक पद पर रहे। डॉ॰ रामविलास शर्मा का साहित्यिक जीवन का आरंभ १९३३ से होता है जब वे सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के संपर्क में आए। १९३४ में उन्होंने ‘निराला’ पर एक आलोचनात्मक आलेख लिखा, जो उनका पहला आलोचनात्मक लेख था। यह आलेख उस समय की चर्चित पत्रिका ‘चाँद’ में प्रकाशित हुआ। इसके बाद वे निरंतर सृजन की ओर उन्मुख रहे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ॰ रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक के रूप में स्थापित होते हैं, जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं।उनकी आलोचना प्रक्रिया में केवल साहित्य ही नहीं होता, बल्कि वे समाज, अर्थ, राजनीति, इतिहास को एक साथ लेकर साहित्य का मूल्यांकन करते हैं। अन्य आलोचकों की तरह उन्होंने किसी रचनाकार का मूल्यांकन केवल लेखकीय कौशल को जाँचने के लिए नहीं किया है, बल्कि उनके मूल्यांकन की कसौटी यह होती है कि उस रचनाकार ने अपने समय के साथ कितना न्याय किया है। साहित्यिक परिचय डॉ रामविलास शर्मा ने अपने उग्र और उत्तेजनापूर्ण निबन्धों से हिन्दी समीक्षा को एक गति प्रदान की है। इन्होंने सम्पूर्ण साहित्य नये और पुराने को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से देखने-परखने का प्रस्ताव बड़ी क्षमता के साथ किया है। शर्मा जी ने सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों समीक्षा-पद्धतियों से अपने विचारों को पुष्ट करने का यत्न किया है। 'समालोचक' नामक एक पत्र भी इनका प्रकाशित हुआ। उनका लेखन काफ़ी हद तक ऐसे पूर्वाग्रहों से मुक्त है। इन्होंने इतिहास को समझने की जो दृष्टि दी, वह अल्पसंख्यक, दलित और स्त्री के नजरिए से तो इतिहास को परखती ही है, साथ ही साम्राज्यवादी यूरो-केंद्रित इतिहास-दृष्टि का खंडन भी करती है। रामविलास जी इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते हैं कि पता नहीं कैसे लोग औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी दृष्टिकोण से लिखे गए इतिहास पर विश्वास करते हैं? इसके लिए वे अशिक्षा को जिम्मेदार ठहराते हुए लिखते हैं, “अग्रेजी राज ने यहाँ शिक्षण व्यवस्था को मिटाया, हिंदुस्तानियों से एक रुपए ऐंठा तो उसमें से छदाम शिक्षा पर खर्च किया। उस पर भी अनेक इतिहासकार अंग्रेज़ों पर बलि-बलि जाते हैं।" रामविलास जी अंग्रेज़ों को उस हद तक प्रगतिशील भी नहीं मानते, जितना अन्य विद्वान् मानते हैं। अंग्रेज़ों की प्रगतिशील भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगते हुए ये लिखते हैं कि “अंग्रेज़ उदारपंथियों के आदर्श प्रजातंत्र संयुक्त राज्य अमरीका में ग़ुलामों से खेती कराके बड़ी-बड़ी रियासतें कायम की गई थीं। ग़ुलामों के व्यापार से लाभ उठानेवालों में अंग्रेज़ सौदागर सबसे आगे थे। यह ग़ुलामी प्रथा न तो पूँजीवादी थी, न सामंती थी; समाजशास्त्र के पंडित उसे सामंतवाद से भी पिछड़ी हुई प्रथा मानते हैं । इस प्रथा का विकास और प्रसार करके अंग्रेज़ सौदागरों ने कौन-सा प्रगतिशील काम किया कहना कठिन है। डॉ शर्मा रामचंद्र शुक्ल के कद के आलोचक थे हिंदी आलोचना में रामचंद्र शुक्ल सबसे बड़े आलोचक माने जाते हैं. कहा जाता है कि उन्होंने जिन साहित्यकारों की तारीफ कर दी, वे हिंदी साहित्य में अमर हो गए. वहीं शुक्ल जी की कलम ने जिनके योगदान को खारिज किया, उन्हें फिर से स्थापित करने में बाकी आलोचकों के पसीने छूट गए. यही बात रामविलास शर्मा के बारे में भी कही जाती थी. उन्हें हिंदी साहित्य की ‘प्रगतिवादी (मार्क्सवादी) आलोचना का पितामह’ कहा जाता है. लगभग साढ़े छह दशक के सक्रिय रचनाकाल में उन्होंने सौ से ज्यादा (112) किताबें लिखीं, जिनमें ज्यादातर आलोचना के ग्रंथ हैं. हालांकि उन्होंने भाषा विज्ञान, इतिहास और राजनीति में भी बेमिसाल काम किया. रामविलास शर्मा मार्क्सवादी मूल्यों के आधार पर साहित्य की आलोचना करते थे. लेकिन जहां भी उचित लगा उन्होंने मार्क्सवाद की लीक छोड़ने में कभी कोई गुरेज नहीं किया. वे केवल आर्थिक पक्ष को आधार मानने के मार्क्सवादी सिद्धांत से कभी पूरी तरह सहमत नहीं रहे. उन्होंने भारत के संदर्भ में मजदूरों के अलावा किसानों को भी क्रांति का सिपाही बताया था. वे यह भी नहीं मानते थे कि साहित्य केवल क्रांति के लिए होता है, आनंद के लिए नहीं. महाकवि निराला का मूल्यांकन करते हुए तो रामविलास शर्मा ने ‘जन्मजात प्रतिभा’ जैसी चीज को भी स्वीकार कर लिया, जो मार्क्सवादी मूल्यों के खिलाफ जाती है. मुख्य कृतियाँ प्रेमचंद और उनका युग, निराला, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रगति और परंपरा, ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति’, भाषा और समाज, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना, निराला की साहित्य साधना (तीन-भाग), भारतीय साहित्य की भूमिका, परंपरा का मूल्यांकन, हिंदी जाति का साहित्य, भारतीय साहित्य के इतिहास की समस्यायें, भारतीय नवजागरण और यूरोप, ‘गांधी, आंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ’, भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नव-जागरण, पश्चिमी एशिया और ऋग्वे द, भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, भारतीय साहित्य और हिंदी जाति के साहित्य की अवधारणा, भारतेंदु युग, भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी, अपनी धरती अपने लोग, घर की बात कविता : रूप तरंग, सदियों के सोये जाग उठे, तार सप्तक उपन्यास : चार दिन निबंध : आस्था और सौंदर्य, विराम चिह्न सम्मान १९७० - 'निराला की साहित्य साधना' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार १९८८ - शलाका सम्मान १९९० - भारत भारती पुरस्कार १९९१ - 'भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी' के लिए व्यास सम्मान १९९९ - साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता सम्मान २००० - शताब्दी सम्मान (११ लाख रुपये) पुरस्कारों में प्राप्त राशियों को उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया। उन राशियों को हिन्दी के विकास में लगाने को कहा। ( 20 ) 6 Votes have rated this Naukri. 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