गंगूबाई हंगल जीवनी - Biography of Gangubai Hangal in Hindi Jivani Published By : Jivani.org गंगूबाई हंगल (अंग्रेज़ी: Gangubai Hangal, जन्म: 5 मार्च 1913 - मृत्यु: 21 जुलाई 2009) भारत की प्रसिद्ध खयाल गायिका थीं। भारतीय शास्त्रीय संगीत के किराना घराने का प्रतिनिधित्व करने वाली गंगूबाई हंगल ने जातीय बाधाओं को पार कर संगीत क्षेत्र में आधे से अधिक सदी तक अपना योगदान दिया। उत्तरी कर्नाटक के धारवाड़ जिले ने हिन्दुस्तानी संगीत के क्षेत्र में देश को कई नामी गिरामी नाम दिए। इनमें भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी, पंचाक्श्री गवई, पंडित पुत्तराजू गवई, पंडित सवई गंधर्व तथा पंडित कुमार गंधर्व शामिल हैं। गंगूबाई हंगल का जन्म कर्नाटक के धारवाड़ जिले के शुक्रवारादापेते में हुआ था। देवदासी परंपरा वाले केवट परिवार में उनका जन्म हुआ था। उनके संगीत जीवन के शिखर तक पहुंचने के बारे में एक अतुल्य संघर्ष की कहानी है। उन्होंने आर्थिक संकट, पड़ोसियों द्वारा जातीय आधार पर उड़ाई गई खिल्ली और भूख से लगातार लड़ाई करते हुए भी उच्च स्तर का संगीत दिया। गंगूबाई को बचपन में अक्सर जातीय टिप्पणी का सामना करना पड़ा और उन्होंने जब गायकी शुरू की तब उन्हें उन लोगों ने 'गानेवाली' कह कर पुकारा जो इसे एक अच्छे पेशे के रूप में नहीं देखते थे। पुरानी पीढ़ी की एक नेतृत्वकर्ता गंगूबाई ने गुरु-शिष्य परंपरा को बरकरार रखा। उनमें संगीत के प्रति जन्मजात लगाव था और यह उस वक्त दिखाई पड़ता था जब अपने बचपन के दिनों में वह ग्रामोफोन सुनने के लिए सड़क पर दौड़ पड़ती थी और उस आवाज की नकल करने की कोशिश करती थी। अपनी बेटी में संगीत की प्रतिभा को देखकर गंगूबाई की संगीतज्ञ मां ने कर्नाटक संगीत के प्रति अपने लगाव को दूर रख दिया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उनकी बेटी संगीत क्षेत्र के एच कृष्णाचार्य जैसे दिग्गज और किराना उस्ताद सवाई गंधर्व से सर्वश्रेष्ठ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखे। गंगूबाई ने अपने गुरु सवाई गंधर्व की शिक्षाओं के बारे में एक बार कहा था कि मेरे गुरूजी ने यह सिखाया कि जिस तरह से एक कंजूस अपने पैसों के साथ व्यवहार करता है, उसी तरह सुर का इस्तेमाल करो, ताकि श्रोता राग की हर बारीकियों के महत्व को संजीदगी से समझ सके।[2] गंगूबाई की मां अंबाबाई कर्नाटक संगीत की ख्यातिलब्ध गायिका थीं आज भी, 75 पर, और अभी तक सक्रिय रूप से प्रदर्शन, पद्म भूषण, तानसेन अवार्ड, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार सहित अन्य सभी समझदार पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं, जीवन के साथ गंगूबाई के अनुभव से किसी भी व्यक्ति से उसे प्रभावित नहीं करता है । वह अक्सर हंसते हैं कि कर्नाटक विश्वविद्यालय ने उसे डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की है। "मैंने कक्षा वी से परे आप का अध्ययन नहीं किया है।" वह पद्म भूषण से सम्मानित होने वाले समय पर विचार करते हुए कहते हैं, "रामण्णा और मैं पूरी रात रुका और एक चीज को याद करना चाहूंगा - मानसिक दुख, दर्द, दुख। ऐसे दुखी विचार! " बहुत से लोग गंगुबाई से पूछते हैं कि 75 की तरह क्या लगता है। वह मुस्कान करती है, लेकिन कोई शब्द नहीं है। उसके चेहरे पर देखो आप सभी को बताता है। यह लगभग ऐसा ही है कि वह उन शब्दों पर हंसते हुए हैं, जो अब उन्हें सम्मान और सम्मान के साथ बौछार करते हैं, जब उसे अब इसकी आवश्यकता नहीं है; शायद जब वह 25 या 30 थी, तो उसके लिए इसका अधिक उपयोग होता! संगीत यात्रा गंगूबाई ने कभी हार नहीं मानी तथा अपने संगीत के पथ पर अटल रहकर अपने लिए हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों में जगह बनाई। वर्ष 1945 तक उन्होंने ख़याल, भजन तथा ठुमरियों पर आधारित देश भर के अलग-अलग शहरों में कई सार्वजनिक प्रस्तुतियाँ दीं। वे ऑल इण्डिया रेडियो में भी एक नियमित आवाज़ थीं। इसके अतिरिक्त गंगूबाई भारत के कई उत्सवों-महोत्सवों में गायन के लिये बुलाई जातीं थीं। ख़ासकर मुम्बई के गणेशोत्सव में तो वे विशेष रुचि लेतीं थीं। 1945 के पश्चात् उन्होंने उप-शास्त्रीय शैली में गाना बंद कर केवल शुद्ध शास्त्रीय शैली में रागों को ही गाना जारी रखा। व्यक्तिगत जीवन गंगूबाई हंगल का वर्ष 1929 में सोलह साल की उम्र में विवाह हुआ था। वह और उनके वकील पति गुरुराव कोवालगी को दो बेटों और एक बेटी के साथ आशीर्वाद मिला। उनके पति का विवाह होने के चार साल बाद उनकी मृत्यु हो गई और उन्हें 20 साल की उम्र में सदमे की स्थिति में छोड़ दिया। गंगूबाई हंगल को अपने गहने और अन्य घरेलू सामान बेचने के लिए अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए धन जुटाना पड़ा। वर्ष 2004 में उनकी बेटी कृष्ण को कैंसर के शिकार के रूप में निधन हो गया था। गंगूबाई हंगल खुद अस्थि मज्जा कैंसर का एक रोग था, जिसके लिए वह इलाज कर चुकी थी और वर्ष 2003 में सफलतापूर्वक इस बीमारी से उबर चुकी थी। पुरस्कार और मान्यता कर्नाटक राज्य सरकार और भारत सरकार ने गंगूबाई हंगल को अपने योगदान की सराहना और हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में उनकी उपलब्धियों को पहचानने के लिए कई पुरस्कार दिए। पुरस्कारों के नाम नीचे सूचीबद्ध हैं: 1962 में कर्नाटक संगीत नृत्य अकादमी पुरस्कार 1971 में पद्म भूषण 1973 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार 1996 में संगीत नाटक अकादमी फैलोशिप दीनानाथ प्रतिष्ठान 1997 में। वर्ष 1998 में मानिक रतन वर्ष 2002 में पद्म विभूषण निधन वर्ष 2006 में उन्होंने अपने संगीत के सफ़र की 75वीं वर्षगाँठ मनाते हुए अपनी अंतिम सार्वजनिक प्रस्तुति दी तथा 21 जुलाई 2009 को 96 वर्ष की आयु में वे हृदय का दौरा पड़ने से अनंत में विलीन हो गईं। उनके निधन के साथ संगीत जगत् ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के उस युग को दूर जाते हुए देखा, जिसने शुद्धता के साथ अपना संबंध बनाया था और यह मान्यता है कि संगीत ईश्वर के साथ अंतरसंवाद है जो हर बाधा को पार कर जाती है। ( 3 ) 0 Votes have rated this Naukri. Average Rating is 0