स्वामी सहजानन्द सरस्वती जीवनी - Biography of Sahajanand Saraswati in Hindi Jivani Published By : Jivani.org स्वामी सहजानन्द सरस्वती (1889-1950) भारत के राष्ट्रवादी नेता एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। वे भारत में किसान आन्दोलन के जनक थे। वे आदि शंकराचार्य सम्प्रदाय के दसनामी संन्यासी अखाड़े के दण्डी संन्यासी थे। वे एक बुद्धिजीवी, लेखक, समाज-सुधारक, क्रान्तिकारी, इतिहासकार एवं किसान-नेता थे। उन्होने 'हुंकार' नामक एक पत्र भी प्रकाशित किया। स्वामी सहजानन्द की पुण्य स्मृति में उनके गृह जनपद गाजीपुर में स्वामी सहजनन्द स्नातकोत्तर महाविद्यालय स्थापित है। स्वामीजी का जन्म उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के देवा गांव में सन् 1889 में महाशिवरात्रि के दिन हुआ था। बचपन में ही माताजी का स्वर्गवास हो गया। कहते हैं पुत के पांव पालने में हीं दिखने लगते हैं। पढ़ाई के दौरान हीं उनका मन आध्यात्म में रमने लगा। दीक्षा को लेकर उनके बालमन में धर्म की इस विकृति के खिलाफ विद्रोह पनपा। धर्म के अंधानुकरण के खिलाफ उनके मन में जो भावना पली थी कालांतर में उसने सनातनी मूल्यों के प्रति उनकी आस्था को और गहरा किया। वैराग्य भावना को देखकर बाल्यावस्था में ही इनकी शादी कर दी गई। संयोग ऐसा रहा कि गृहस्थ जीवन शुरू होने के पहले हीं इनकी पत्नी का देहांत हो गया। इसके बाद उन्होंने विधिवत संन्यास ग्रहण की और दशनामी दीक्षा लेकर स्वामी सहजानंद सरस्वती हो गए। इसी दौरान उन्हें काशी में समाज की एक और कड़वी सच्चाई स सामना हुआ। दरअसल काशी के कुछ पंड़ितों ने उनके संन्यास का ये कहकर विरोध किया कि ब्राह्मणेतर जातियों को दण्ड धारण करने का अधिकार नहीं है। स्वामी सहजानंद ने इसे चुनौती के तौर पर लिया और विभिन्न मंचों पर शास्त्रार्थ कर ये साबित किया कि भूमिहार भी ब्राह्मण हीं हैं और हर योग्य व्यक्ति संन्यास धारण करने की पात्रता रखता है। बाद के दिनों में स्वामीजी ने बिहार में किसान आंदोलन शुरू किया। स्वामी सहजानंद सरस्वती विकास सेवा संस्थान’ को बने तीस वर्ष से अधिक हो गए हैं। कहना न होगा कि स्थापना काल से ही यह संस्थान अपने संस्थापक अध्यक्ष डॉ. महाचंद्र प्रसाद सिंह के कुशल निर्देशन एवं संरक्षण में स्वामीजी की भावनाओं के अनुरूप किसान-मजदूरों के कल्याण हेतु पूर्ण रूप से संकल्पित एवं समर्पित रहा है। इस क्रम में किसान के बच्चों को शिक्षार्जन हेतु आर्थिक सहायता देने, उच्च न्यायालय में लड़ाई लड़कर 16 सरकारी गन्ना मिलों में किसानों के गन्ना मूल्य की लंबित राशि ब्याज सहित दिलवाने, किसान रथ के माध्यम से राज्य के 162 प्रखंडों में भ्रमण कर ‘कृषक-जागृति अभियान’ चलाने, राज्य मुख्यालय में स्वामीजी की आदमकद प्रतिमा स्थापित कराने, स्वामीजी की जयंती को राजकीय समारोह के रूप में मनाने की सरकारी घोषणा कराने आदि कार्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त स्वामीजी के उदात्त आदर्शों को चिंतन और लेखन के स्तर पर जीवंत रखकर उसके प्रचार-प्रसार हेतु अनेक बौद्धिक कार्यक्रम और आयोजन भी किए जाते रहे हैं। निश्चित रूप से स्वामीजी की पुण्यतिथि के अवसर पर ‘स्वामी सहजानंद सरस्वती :अमृत-कलश’ का प्रकाशन अत्यंत ही प्रशंस्य एवं शलाघ्य प्रयास है। आशा है, यह स्वामीजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विविध आयामों को उद्घाटित करने में कारगर सिद्ध होगा। ज़मींदारी विरोधी आंदोलन : स्वामीजी के जीवन का तीसरा चरण तब शुरू होता है जब वे कांग्रेस में रहते हुए किसानों को हक दिलाने के लिए संघर्ष को हीं जीवन का लक्ष्य घोषित करते हैं। उन्होंने नारा दिया- कैसे लोगे मालगुजारी, लट्ठ हमारा ज़िन्दाबाद । बाद में यहीं नारा किसान आंदोलन का सबसे प्रिय नारा बन गया। वे कहते थे - अधिकार हम लड़ कर लेंगे और जमींदारी का खात्मा करके रहेंगे। उनका ओजस्वी भाषण किसानों पर गहरा असर डालता था। काफ़ी कम समय में किसान आंदोलन पूरे बिहार में फैल गया। स्वामीजी का प्रांतीय किसान सभा संगठन के तौर पर खड़ा होने के बजाए आंदोलन बन गया। हर ज़िले और प्रखण्डों में किसानों की बड़ी-बड़ी रैलियां और सभाएँ हुईं। बाद के दिनों में उन्होंने कांग्रेस के समाजवादी नेताओं से हाथ मिलाया। सर्वश्री एम जी रंगा, ई एम एस नंबूदरीपाद, पंड़ित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुना कार्यजी जैसे वामपंथी और समाजवादी नेता किसान आंदोलन के अग्रिम पंक्ति में। आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, पंडित यदुनंदन शर्मा, पी. सुन्दरैया और बंकिम मुखर्जी जैसे तब के कई नामी चेहरे भी किसान सभा से जुड़े थे। वामपंथी रुझान के चलते सीपीआई उन्हें अपना समझती रही और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ भी वे अनेक रैलियों में शामिल हुए। आज़ादी की लड़ाई के दौरान जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो नेताजी ने पूरे देश में 'फ़ारवर्ड ब्लॉक' के ज़रिये हड़ताल कराया। सामाजिक कार्य : परिस्थितिवश स्वामी जी 1915 ई. में सामाजिक कार्य में पड़ गए। इस अवधि में इन्होंने पुरोहितवाद, कथावाचन के ब्राह्मण जाति के एक उपजाति के एकाधिकार के खिलाफ खड़ा होना पड़ा। स्वामी जी किसी भी प्रकार के अन्याय के खिलाफ डट जाने का स्वभाव रखते थे। गिरे हुए को उठाना अपना प्रधान कर्तव्य मानते थे। स्वामी जी ने इस क्रम में ब्रह्मर्षि वंश विस्तार, झूठा भय, मिथ्या अभिमान, ब्राह्मण समाज की स्थिति इत्यादि पुस्तकें लिखीं। सुनील कुमार चाटुर्ज्या, पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी, कान्यकुब्ज सभा, सर्यूपारीण सभा इत्यादि व्यक्ति और संगठन ब्रह्मर्षि वंश विस्तार में उद्घाटित तथ्यों के आलोक में स्वामी जी से अपनी सहमति जताई पर डुमराव के शाकद्वीपी-मागी ब्राह्मण रजनीकांत शास्त्री एवं उनके समर्थकों ने विरोध नहीं छोड़ा और पूजा कराना बंद कराने की धमकी दे दी। इस परिस्थिति में स्वामी जी ने खुद कथावाचन, संस्कृत अध्ययन की राय समाज को दी एवं पूजा-पाठ, शादी-ब्याह, सोलह संस्कार, नित्य कर्म, संध्यावंदन इत्यादि कर्मों हेतु अत्यन्त सरल, सुबोध, पुस्तक 'कर्मकलाप' लिख कर दे दी ताकि अपना काम खुद चला लें। 1935 ई. के आस-पास बेला के पास शिलौजा गाँव में हुए शास्त्रार्थ में सभी पुरोहितवाद को अपनी जागीर समझनेवाले जमात एवं उनके प्रमुख रजनीकांत शास्त्री की हार हुई और खुद उनकी पुरोहिती एवं जीविका खतरे में पड़ गई तब उन्होंने स्वामी जी का पैर पकड़ कर कहा - 'आप संन्यासी हैं। दयालु हैं। सब कुछ कीजिए पर पेट पर लात न मारें।' स्वामीजी द्वारा रचित पुस्तकें : 1. ब्रह्मर्षि वंश विस्तार, ब्राह्मण समाज की स्थिति, झूठा भय मिथ्या-अभिमान, कर्म-कलाप, गीता-हृदय (धार्मिक) क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा, किसान सभा के संस्मरण, किसान कैसे लड़ते हैं, झारखण्ड के किसान, किसान क्या करें, मेरा जीवन संघर्ष (आत्मकथा) आदि। 2. स्वामीजी द्वारा सम्पादित पत्र 3. स्वामीजी ने क्रमश: भूमिहार ब्राह्मण, काशी और लोक संग्रह, पटना नामक पत्रों का सम्पादन 1911-16 और 1922-24 तक सफलतापूर्वक किया। उनके लेख 'हुंकार' पटना, जनता (पटना), विशाल भारत (कलकत्ता) तथा कल्याण (गोरखपुर) के ईश्वरांक तथा योगांक में भी प्रकाशित हुए थे। ( 16 ) 8 Votes have rated this Naukri. 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