जे. कृष्णमूर्ति जीवनी - Biography Of J. Krishnamurti in Hindi Jivani Published By : Jivani.org नाम :– जिद्दू कृष्णमूर्ति। जन्म :– 12 मई, 1895, तमिलनाडु। पिता : । माता : । पत्नी/पति :– । प्रारम्भिक जीवन : जे. कृष्णमूर्ति का जन्म तमिलनाडु के एक छोटे-से नगर में निर्धन ब्राह्मण परिवार में 12 मई, 1895 को हुआ था। अपने माता-पिता की आठवीं संतान के रूप में उनका जन्म हुआ था इसीलिए उनका नाम कृष्णमूर्ति रखा गया। कृष्ण भी वासुदेव की आठवीं संतान थे। इनके पिता 'जिद्दू नारायनिया' ब्रिटिश प्रशासन में सरकारी कर्मचारी थे। जब कृष्णमूर्ति केवल दस साल के ही थे, तभी इनकी माता 'संजीवामा' का निधन हो गया। बचपन से ही इनमें कुछ असाधारणता थी। थियोसोफ़िकल सोसाइटी के सदस्य पहले ही किसी विश्वगुरु के आगमन की भविष्यवाणी कर चुके थे। श्रीमती एनी बेसेंट और थियोसोफ़िकल सोसाइटी के प्रमुखों को जे. कृष्णमूर्ति में वह विशिष्ट लक्षण दिखाई दिये, जो कि एक विश्वगुरु में होते हैं। एनी बेसेंट ने जे. कृष्णमूर्ति की किशोरावस्था में ही उन्हें गोद ले लिया और उनकी परवरिश पूर्णतया धर्म और आध्यात्म से ओत-प्रोत वातावरण में हुई। विचार : कृष्णमूर्ति के विचारों के जन्म को उसी तरह माना जाता है जिस तरह की एटम बम का अविष्कार के होने को। कृष्णमूर्ति अनेकों बुद्धिजीवियों के लिए रहस्यमय व्यक्ति तो थे ही साथ ही उनके कारण विश्व में जो बौद्धिक विस्फोट हुआ है उसने अनेकों विचारकों, साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों को अपनी जद में ले लिया। उनके बाद विचारों का अंत होता है। उनके बाद सिर्फ विस्तार की ही बातें हैं। 1927 में एनी बेसेंट ने उन्हें 'विश्व गुरु' घोषित किया। किन्तु दो वर्ष बाद ही कृष्णमूर्ति ने थियोसोफ़िकल विचारधारा से नाता तोड़कर अपने नये दृष्टिकोण का प्रतिपादन आरम्भ कर दिया। अब उन्होंने अपने स्वतंत्र विचार देने शुरू कर दिये। उनका कहना था कि व्यक्तित्व के पूर्ण रूपान्तरण से ही विश्व से संघर्ष और पीड़ा को मिटाया जा सकता है। हम अन्दर से अतीत का बोझ और भविष्य का भय हटा दें और अपने मस्तिष्क को मुक्त रखें। उन्होंने 'आर्डर ऑफ़ द स्टार' को भंग करते हुए कहा कि 'अब से कृपा करके याद रखें कि मेरा कोई शिष्य नहीं हैं, क्योंकि गुरु तो सच को दबाते हैं। सच तो स्वयं तुम्हारे भीतर है।...सच को ढूँढने के लिए मनुष्य को सभी बंधनों से स्वतंत्र होना आवश्यक है।' उन्होंने सत्य के मित्र और प्रेमी की भूमिका निभायी लेकिन स्वयं को कभी भी गुरू के रूप में नहीं रखा। उन्होंने जो भी कहा वह उनकी अन्तर्दृष्टि का संप्रेषण था। उन्होनंे दर्शनशास्त्र की किसी नई पद्धति या प्रणाली की व्याख्या नहीं की, बल्कि मनुष्य की रोज़मर्रा की जिन्दगी से ही - भ्रष्ट और हिंसापूर्ण समाज की चुनौतियों, मनुष्य की सुरक्षा और सुख की खोज, भय, दुख, क्रोध जैसे विषयों पर कहा। बारीकी से मानव मन की गुत्थियों को सुलझा कर लोगों के सामने रखा। दैनिक जीवन में ध्यान के यथार्थ स्वरूप, धार्मिकता की महत्ता के बारे में बताया। उन्होनंे विश्व के प्रत्येक मानव के जीवन में उस आमूलचूल परिवर्तन की बात कही जिससे मानवता की वास्तविक प्रगति की ओर उन्मुख हुआ जा सके। अपने कार्य के बारे में उन्होंने कहा ”यहां किसी विश्वास की कोई मांग या अपेक्षा नहीं है, यहां अनुयायी नहीं है, पंथ संप्रदाय नहीं है, व किसी भी दिशा में उन्मुख करने के लिए किसी तरह का फुसलाना प्रेरित करना नहीं है, और इसलिए हम एक ही तल पर, एक ही आधार पर और एक ही स्तर पर मिल पाते हैं, क्योंकि तभी हम सब एक साथ मिलकर मानव जीवन के अद्भुत घटनाक्रम का अवलोकन कर सकते हैं।” १९८६ में ९० वर्ष की आयु में कृष्णमूर्ति की मृत्यु हुई, मेरी लट्यंस द्वारालिखित उनकी वृहदाकार जीवनी के दो खंड 'थे यिअर्ज़ अॉफ अवेकनिंग, (१९७५) तथा 'द यीअर्ज अॉफ फुलफिलमेंट' (१९८३) प्रकाशित हो चुके थे। तीसरा खंड 'द ओपन डोर' १९८८ में प्रकाशित हुआ। इन तीनों खण्डों को मेरी लटयंस ने 'द लाइफ एंड डेथ अॉफ जे.कृष्णमूर्ति' नाम से एक पुस्तक में समेटा है। कृष्णमूर्ति की शिक्षाओ को समझने के लिए उनके जीवन की, उनके मृत्यु की विशदता को जानना-समझना महत्वपूर्ण है। “शिक्षा का सबसे बड़ा कार्य एक ऐसे समग्र व्यक्ति का विकास है जो जीवन की समग्रता को पहचान सके। आदर्शवादी और विशेषज्ञ दोनों ही समग्र से नहीं खण्ड से जुड़े हुए होते हैं। जब तक हम किसी एक ही प्रकार की कार्यप्रणाली का आग्रह नहीं छोड़ते तब तक समग्रता का बोध सम्भव नहीं है।” ( 1 ) 15 Votes have rated this Naukri. Average Rating is 4