नज़ीर अकबराबादी जीवनी - Biography of Nazeer Akbarabadi in Hindi Jivani Published By : Jivani.org नज़ीर अकबराबादी (१७३५–१८३०) १८वीं शदी के भारतीय शायर थे जिन्हें "नज़्म का पिता" कहा जाता है। उन्होंने कई ग़ज़लें लिखी, उनकी सबसे प्रसिद्ध व्यंग्यात्मक ग़ज़ल बंजारानामा है। नज़ीर अकबराबादी (१७३५-१८३०), जिन का असली नाम वली मुहम्मद था, को उर्दू 'नज़्म का पिता' करके जाना जाता है । वह आम लोगों के कवि थे । उन्होंने आम जीवन, ऋतुयों, त्योहारों, फलों, सब्जियों आदि विषयों पर लिखा । वह धर्म-निरपेक्षता की ज्वलंत उदाहरण हैं । कहा जाता है कि उन्होंने लगभग दो लाख रचनायें लिखीं । परन्तु उनकी छह हज़ार के करीब रचनायें मिलती हैं और इन में से ६०० के करीब ग़ज़लें हैं। उनकी आरम्भिक शिक्षा आगरा में ही हुई। नज़ीर का ख़ानदान समृद्ध था, इसलिए उन्होंने अपना बचपन और जवानी के दिन बहुत आराम व आसाइश में गुज़ारे। ख़ानदान और माहौल के असर से सिपहगिरी के फ़न में कमाल हासिल किया और भी बहुत से खेलों में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। रोज़गार की तलाश हुई तो नज़ीर ने अध्ययन का पेशा अपनाया, मथुरा में बच्चों को शिक्षा देते थे। कहा जाता है कि उन्होंने राजा विलास राय के छः बच्चों को पढ़ाया। बाद में नज़ीर को राजा भरतपुर और उसके बाद नवाब अवध वाजिद अली शाह ने अपने मुसाहिबों में रखना चाहा लेकिन नज़ीर अपना वतन छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। नज़ीर अकबराबादी मीर, सौदा, जुरअत, इंशा और मुसहफ़ी के समकालीन थे। यह वह दौर था जिसमें उर्दू की क्लासीकी शायरी अपने शिखर पर थी और ग़ज़ल की विधा सृजनात्मक अभिव्यक्ति का सबसे अहम माध्यम समझी जाती थी। नज़ीर अकबराबादी का कमाल यह है कि उन्होंने उस दौर में उर्दू शायरी को बिल्कुल एक नये और अनोखे अनुभव से परिचय कराया। नज़ीर ने अपनी शायरी के लिए विषय अपने आस-पास बिखरी हुई ज़िंदगी से चुने। अवामी ज़िंदगी का शायद ही कोई ऐसा पहलू हो जिसका प्रयोग नज़ीर ने अपनी शायरी में न किया हो। होली, दीवाली, राखी, शब-ए-बरात, ईद, पतंगबाज़ी, कबूतरबाज़ी, बरसात, और इस तरह के बहुत से विषय उनके यहाँ मिलते हैं। उस ज़माने की मस्तियाँ, हुस्न-ओ-इश्क़ की मंज़िलें, तफ़रीह, मनोरंजन, बेहूदगियाँ यहाँ तक कि बाज़ारुपन भी उनके मिज़ाज और शायरी का हिस्सा रहा। नज़ीर की शायरी की ज़बान भी उर्दू की मानक भाषा और लब-ओ-लहजे के अलावा आम बोलचाल की ज़बान है। नज़ीर ने विषय भी अवामी ज़िंदगी से उठाये और उनको बयान करने के लिए ज़बान भी उन्हीं की इस्तेमाल की। व्यक्तित्व ‘नज़ीर’ का हुलिया फरहतुल्ला बेग यूं लिखते हैं - ‘नज़ीर’ का रंग गुंदुम-गूं (गेहुंआ), कद मियाना, पेशानी ऊंची और चौड़ी, आंखें चमकदार और बेनी (नाक) बुलन्द थी। दाढ़ी ख़शख़शी और मूंछें बड़ी रखते थे। खिड़कीदार पगड़ी, गाढ़े का अंगरखा, सीधा पर्दा, नीची चोली, उसके नीचे कुरता, एक बरका पाजामा, घीतली जूती, हाथ में शानदार छड़ी, उंगलियों में फ़ीरोज़े और अक़ीक की अंगूठियां।’ नज़ीर का काव्य ‘नज़ीर’ बहुत पुराने ज़माने में पैदा हुए थे। उन्होंने लम्बी उम्र पाई। उनके मरने के लगभग सौ वर्ष बाद उनकी रचनाओं को ऐतिहासिक महत्त्व मिला। सम्भवतः किसी और साहित्यकार को कीर्ति इतनी देर से नहीं मिली। इसीलिए यह भी सुनिश्चित है कि ‘नज़ीर’ की कीर्ति का स्थायित्व भी अन्य कवियों की अपेक्षा अधिक होगा। अभी तो सम्भवतः ‘नज़ीर’ के काव्य की मान्यता का शैशवकाल ही है। ‘नज़ीर’ को उन्नीसवीं शताब्दी के आलोचकों ने, जिनमें नवाब मुस्तफ़ा-ख़ां ‘शेफ़्ता’ प्रमुख हैं, निकृष्ट कोटि का कवि माना है। नवाब ‘शेफ़्ता’ द्वारा लिखित उर्दू कवियों के तज़किरे गुलशने-बे-ख़ार की रचना के बहुत पहले ही नज़ीर परलोकवासी हो गए थे। किन्तु यदि ‘शेफ़्ता’ जैसा विद्वान् उनके जीवनकाल ही में उन्हें निकृष्ट कोटि का कवि करार देता तो भी उन्हें चिन्ता न होती। नज़ीर ने कभी खुद को ऊंचा कवि नहीं कहा, हमेशा अपने को साधारणता के धरातल पर ही रखा। उन्होंने अपने व्यक्तित्व का जो भी चित्रण किया है, उसमें अपना हुलिया बिगाड़कर रख दिया है। साहित्यिक कीर्ति के पीछे दौड़ने की तो बात ही क्या, उन्होंने लखनऊ और भरतपुर के दरबारों के निमंत्रणों को अस्वीकार करके जिस तरह मिलती हुई कीर्ति को भी ठोकर मार दी, उसे देखकर आज के ज़माने में जबकि साहित्य क्षेत्र में हर तरफ कुंठा का बोलबाला दिखाई देता है, हमारी आंखें आश्चर्य से फटी रह जाती हैं। हम समझ ही नहीं पाते कि ‘नज़ीर’ किस मिट्टी के बने थे कविता ऐसा कहा जाता है कि नज़र के काव्य खजाने में लगभग 200,000 छंदें शामिल थीं लेकिन दुर्भाग्य से इसका एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो गया और मुद्रित रूप में केवल 6000 छंद उपलब्ध हैं। कोई और उर्दू कवि नज़र में कई शब्दों के रूप में इस्तेमाल किया था। नज़र की कविता ने अपनी हर रोज़ भाषा में आम लोगों की दुर्दशा को व्यक्त किया और जनता के बीच बहुत लोकप्रिय था। यह "अभिजात वर्ग" तत्व की कमी के कारण हो सकता था कि शायद नाजिर की प्रतिभा तब तक बहुत अधिक समय तक नहीं पहचानी गई थी। लेकिन इस उपेक्षा के बावजूद, उनके कुछ काव्य खजाना अभी भी उपलब्ध हैं और उनकी कुछ कविताओं, जैसे "बनजारामामा" (एक खानाबदोश / जिप्सी के क्रॉनिकल), "कलुग नहिं कार्जग है ये", "आदमिक नामा" (इतिहास आदमी), आदि, अमर बन गया। ऐसी कविताएं स्कूल की पाठ्य पुस्तकों में अपनी जगह पाती हैं और उर्दू कविता के समझदार प्रशंसकों को नाज़र की कविता की महानता को पहचानने में असफल नहीं होगा। उन्होंने हमें लगभग 600 गजलों के लिए छोड़ दिया, हालांकि उनकी नाज़ प्रशंसा के योग्य होने के लिए कहा जाता है। वास्तव में, नाज़ेर की बढ़ती लोकप्रियता उसके नाजियों के कारण है। वह विशुद्ध रूप से "पीपल्स कवि" थे और उनकी नाज़ियां उनकी उम्र के दैनिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर सभी प्रकार के धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों पर भी नजर आईं थीं, जिसमें मामूली विवरण भी शामिल थे, जिसमें आम लोगों को हंसी, गायन, चिढ़ा और खेलना देखा जा सकता था। उन्होंने धार्मिक और सामाजिक त्योहारों, जैसे दीपावली, होली, ईद, शब-ए-बरात, फलों और जानवरों और पक्षियों के बारे में, मौसमों के बारे में तथा पैसों, रूपाया, रोटयान, आट-दाल जैसे नाजुक वस्तुओं के बारे में नजसम लिखा है ( 9 ) 51 Votes have rated this Naukri. 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