कृष्णदास कविराज जीवनी - Biography of Krishnadas Kaviraj in Hindi Jivani Published By : Jivani.org कृष्णदास कविराज बांग्ला भाषा के वैष्णव कवि थे। पश्चिम बंगाल में उनका वही स्थान है, जो उत्तर भारत में तुलसीदास का। इनका जन्म बर्द्धमान ज़िले के झामटपुर नामक ग्राम में एक कायस्थ कुल में हुआ था। इनका समय कुछ लोग 1496 से 1598 ई. और कुछ लोग 1517 से 1615 ई. मानते हैं। कविराज कृष्णदास बंगाल के वैष्णव कवि। बंगाल में उनका वही स्थान है जो उत्तर भारत में तुलसीदास का। इनका जन्म बर्दवान जिले के झामटपुर ग्राम में कायस्थ कुल में हुआ था। इनका समय कुछ लोग 1496 से 1598 ई. और कुछ लोग 1517 से 1615 ई. मानते हैं। इन्हें बचपन में ही वैराग्य हो गया। कहते हैं कि नित्यानन्द ने उन्हें स्वप्न में वृन्दावन जाने का आदेश दिया। तदनुसार इन्होंने वृन्दावन में रहकर संस्कृत का अध्ययन किया और संस्कृत में अनेक ग्रंथों की रचना की जिसमें गोविन्दलीलामृत अधिक प्रसिद्ध है। इसमें राधा-कृष्ण की वृंदावन की लीला का वर्णन है। किंतु इनका महत्व पूर्ण ग्रंथ चैतन्यचरितामृत है। इसमें महाप्रभु चैतन्य की लीला का गान किया है। इसमें उनकी विस्तृत जीवनी, उनके भक्तों एवं भक्तों के शिष्यों के उल्लेख के साथ-साथ गौड़ीय वैष्णवों की दार्शनिक एवं भक्ति संबंधी विचारधारा का निदर्शन है। इस महाकाव्य का बंगाल में अत्यंत आदर है और ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण है। 'कृष्ण' नाम का जाप एक दिन इन्हें स्वप्न में श्री नित्यानन्द जी ने दर्शन दिये तथा संसाराश्रम छोड़ने की अनुमति दी। तभी कृष्णदास भगवान की प्रेम लीलास्थली वृन्दावन की ओर चल पड़े। कृष्णदास जी के जन्म लेने के समय से पूर्व ही श्री चैतन्य लीला संवरण कर चुके थे। अत: ये परम वीतरागी श्री चैतन्य के प्रिय शिष्य रघुनाथदास जी से मिले एवं उन्हीं के शरणापन्न हुए। रघुनाथदास जी से दीक्षा ले इन्होंने अपना अवशिष्ट समय प्रेमभक्ति-शिक्षा, शास्त्रों की आलोचना, महाप्रभु श्री चैतन्यदेव के पावन चरित्र के अनुशीलन एवं श्रीकृष्ण नाम जप में ही व्यतीत किया। रघुनाथदास के प्रिय शिष्य श्री रघुनाथदास जी श्री चैतन्यदेव के अत्यन्त प्रिय शिष्यों में से थे। महाप्रभु की अन्तिम अवस्था में उनके पास श्रीस्वरूप गोस्वामी एवं रघुनाथदास ही रहते तथा इनकी सेवा-शुश्रुषा करते थे। महाप्रभु के दिव्य महाभाव की उच्च अवस्था, उनकी अपूर्व प्रेममयी स्थिति एवं उनके मन: पटल पर उठती श्रीकृष्ण प्रेम की दिव्य तरंगों को श्री स्वरूप गोस्वामी उनकी कृपा से जान लिया करते थे। वे यह बस इनको बता दिया करते थे- अत: श्री रघुनाथदास जी श्री चैतन्यदेव के प्रेम-रहस्य के अत्यन्त मर्मज्ञ थे। इन श्री रघुनाथदास जी ने यह सभी प्रेम-रहस्य अपने प्रिय शिष्य कृष्णदास पर प्रकट किया। इस प्रकार गुरुकृपा से इन्हें प्रेम-रहस्य का दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ। प्रचलित किंवदंति भावुक भक्तों में यह किंवदंति प्रचलित है कि ये श्रीराधारानी की किसी मंजरी के अवतार थे। इन्होंने श्रीचैतन्य चरितामृत में एक ऐसा प्रयोग किया है जिसे तत्कालीन वैयाकरण खोजने पर भी किसी व्याकरण में नहीं पा सके। कहते हैं उस समय उनमें से किसी एक प्रमुख ने इनकी तीव्र आलोचना की तो श्रीराधारानी ने स्वप्न में उसे बताया कि ये मेरी मंजरी के अवतार हैं- ये इतनी बड़ी भूल नहीं कर सकते। चैतन्य चरितामृत' की रचना श्री चैतन्य देव की अन्तरंग लीलाओं का प्रकाश श्री चैतन्य के लीला संवरण के पश्चात वृन्दावन में किसी-किसी को ही था। उनके सभी भक्तों को चैतन्य प्रेम-रहस्य का ज्ञान हो, इसलिये श्री कृष्णदास जी ने अपने अन्तिम समय में बँगला भाषा में अत्यन्त ही सुललित छन्दों में ‘श्रीचैतन्य चरितामृत’ नामक काव्य ग्रन्थ का निर्माण किया। कहते हैं उस समय वे अत्यन्त ही वृद्ध हो चुके थे। उनका समस्त अंग जर्जर था। न आँखों से देखा जाता था न कानों से पूरी तरह सुना जाता। मुख से उच्चारण भी पूरा नहीं होता था। किंतु फिर भी इन्होंने ग्रन्थ लिखा। इनसे किसी ने पूछा भी कि ‘आप इसे कैसे लिखवा रहे हैं?' इन्होंने उत्तर दिया कि ‘मेरी क्या सामर्थ्य है जो इस ग्रन्थ को लिखूँ; इसे तो साक्षात मदनगोपाल लिखा रहे हैं। कृष्णदास कविराज……………………………………… · कविराज कृष्णदास, बंगाल वैष्णव कवि। · इनका जन्म बर्दवान जिले के झामटपुर ग्राम में कायस्थ कुल में हुआ था। · इनका समय कुछ लोग १४९६ से १५९८ ई. और कुछ लोग १५१७ से १६१५ ई. मानते हैं। · इन्हें बचपन में ही वैराग्य हो गया। कहते हैं कि नित्यानंद ने उन्हें स्वप्न में वृंदावन जाने का आदेश दिया। · तदनुसार इन्होंने वृंदावन में रहकर संस्कृत का अध्ययन किया और संस्कृत में अनेक ग्रंथों की रचना की जिसमें गोविंदलीलामृत अधिक प्रसिद्ध है। · इसमें राधा कृष्ण की वृंदावन की लीला का वर्णन है। · किंतु इनका महत्व पूर्ण ग्रंथ चैतन्यचरितामृत है। · इसमें महाप्रभु चैतन्य की लीला का गान किया है। · इसमें उनकी विस्तृत जीवनी, उनके भक्तों एवं भक्तों के शिष्यों के उल्लेख के साथ साथ गौड़ीय · वैष्णवों की दार्शनिक एवं भक्ति संबंधी विचारधारा का निदर्शन है। · इस महाकाव्य का बंगाल में अत्यंत आदर है और ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण है। · बंगाल में उनका वही स्थान है जो उत्तर भारत में तुलसीदास का । ( 9 ) 4 Votes have rated this Naukri. Average Rating is 4