सालिम अली जीवनी - Biography of Salim ali in Hindi Jivani Published By : Jivani.org सालिम अली एक विश्व विख्यात पक्षी-विज्ञानी है । पक्षियों के सर्वेक्षण में 65 साल गुजार देने वाले इस शख्स को परिंदों का चलताफिरता विश्वकोष कहा गया है । पद्मविभूषण से नवाजे गये परिंदों के इस मसीहा को प्रकृति संरक्षण की दिशा में किए गए प्रयासों के लिए कभी भुलाया नहीं जा सकता है । सालिम मोइज़ुद्दीन अब्दुल अली का जन्म 12 नवम्बर, 1896 को बॉम्बे (अब मुम्बई), ब्रिटिश इंडिया में एक सुलेमानी बोहरा मुस्लिम परिवार में हुआ। ये अपने भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। इनके जन्म के एक वर्ष बाद पिता मोइज़ुद्दीन का और तीन वर्ष बाद माता ज़ीनत-अन-नीसा का देहांत हो गया। उनकी परवरिश मामा अमरुद्दीन और औलादहीन मामी हमीदा बेगम की देखरेख में खेतवाड़ी, मुंबई में एक मध्यम-वर्गीय परिवार में हुई। इनका सारा बचपन चिड़ियों के बीच ही गुजरा। एक गौरैया की गरदन के पीले धब्बों की जिज्ञासा उन्हें मुंबई की 'नैचुरल हिस्ट्री सोसाइटी' के सचिव डब्ल्यू. एस. मिलार्ड के पास ले गई। यह मुलाक़ात उनके जीवन का एक अहम् मोड़ साबित हुई। सालिम को पहली बार पक्षियों की इतनी सारी प्रजाति होने की जानकारी हुई। यहीं से उनका झुकाव परिंदों की ओर हुआ और उन्होंने इनके बारे में सब कुछ जानने की ठान ली। इसके लिए मिलार्ड ने उनकी बहुत मदद की। उन्होंने सालिम को सोसाइटी के पक्षियों के संग्रह से परिचित कराया। साथ ही पक्षियों से संबंधित कुछ पुस्तकों से भी अवगत कराया। एडवर्ड हैमिल्टन ऐटकेन की पुस्तक 'कॉमन बर्ड्स ऑफ़ बॉम्बे' ने सालिम को पक्षियों के संग्रह के लिए प्रेरित किया। सालिम के पास विश्वविद्यालय की डिग्री नहीं थी। इसका सबसे बड़ा कारण था उनका गणित में कमज़ोर होना। हालांकि कॉलेज में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी, लेकिन डिग्री नहीं ले पाए थे। सालिम के पास विश्वविद्यालय की डिग्री न थी । इसका सबसे बड़ा कारण था उन का गणित में कमजोर होना । हालांकि कॉलेज में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी लेकिन डिग्री नहीं ले पाए थे । पढ़ाई के दौरान वे कुछ दिनों के लिए बर्मा चले गए । असल में वे वहां अपने भाइ के वालफ्रेम माइनिंग के व्यापार सहयोग के लिए गए थे, लेकिन वहां भी उन्हें असफलता ही हाथ लगी । वे तो जंगलों में वालफ्रेम तलाश करने के बजाय परिंदों को ढूंढ़ते और निहारते रह गए । लिहाजा उन्होंने मुंबई लौटकर जंतु विज्ञान में एक कोर्स पूरा किया और 'मुंबई नैचुरल हिस्ट्री सोसाइटी' के संग्रहालय में नौकरी करने लगे । एक गाइड के रूप में वें मरे हुए सुरक्षित पक्षियों को दर्शकों को दिखाते और उनके बारे में जानकारी देते । पक्षियों के पीछे ताउम्र पूरे देश में भागते रहने वाले सालिम अली को प्रकृति संरक्षण की दिशा में किए गए उनके प्रयासों के लिए कभी भुलाया नहीं जा सकता । उनके इसी योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने 1983 में उन्हें पद्मविभूषण से अलंकृत किया । 20 जून 1987 को 91 साल के सालिम की मृत्यु ने परिंदों को हमेंसा हमेंसा के लिए बेसहारा कर दिया । बर्डमैन ऑफ़ इंडिया डॉ सलीम अली ने अपना पूरा जीवन पक्षियों के लिए समर्पित कर दिया। ऐसा माना जाता है कि सलीम मोइज़ुद्दीन अब्दुल अली परिंदों की ज़ुबान समझते थे। उन्होंने पक्षियों के अध्ययन को आम जनमानस से जोड़ा और कई पक्षी विहारों की तामीर में अग्रणी भूमिका निभाई। उन्होंने पक्षियों की अलग-अलग प्रजातियों के बारे में अध्ययन के लिए देश के कई भागों और जंगलों में भ्रमण किया। कुमाऊँ के तराई क्षेत्र से डॉ अली ने बया पक्षी की एक ऐसी प्रजाति ढूंढ़ निकाली जो लुप्त घोषित हो चुकी थी। साइबेरियाई सारसों की एक-एक आदत की उनको अच्छी तरह पहचान थी। उन्होंने ही अपने अध्ययन के माध्यम से बताया था कि साइबेरियन सारस मांसाहारी नहीं होते, बल्कि वे पानी के किनारे पर जमी काई खाते हैं। वे पक्षियों के साथ दोस्ताना व्यवहार करते थे और उन्हें बिना कष्ट पहुंचाए पकड़ने के 100 से भी ज़्यादा तरीक़े उनके पास थे। पक्षियों को पकड़ने के लिए डॉ सलीम अली ने प्रसिद्ध ‘गोंग एंड फायर’ व ‘डेक्कन विधि’ की खोज की जिन्हें आज भी पक्षी विज्ञानियों द्वारा प्रयोग किया जाता है। जर्मनी के ‘बर्लिन विश्वविद्यालय’ में उन्होंने प्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक इरविन स्ट्रेसमैन के देख-रेख में काम किया। उसके बाद सन 1930 में वे भारत लौट आये और फिर पक्षियों पर और तेजी से कार्य प्रारंभ किया। देश की आज़ादी के बाद डॉ सलीम अली ‘बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी’ (बीएनएसच) के प्रमुख लोगों में रहे। भरतपुर पक्षी विहार की स्थापना में उनकी प्रमुख भूमिका रही। पक्षीविज्ञान 1930 में भारत लौटने पर उन्होंने पाया कि गाइड व्याख्याता के पद को पैसों की कमी के कारण समाप्त कर दिया गया है। और एक उपयुक्त नौकरी खोजने में वे असमर्थ थे, उसके बाद सालिम अली और तहमीना मुम्बई के निकट किहिम नामक एक तटीय गाँव में स्थानांतरित हुए। यहाँ उन्हें बाया वीवर के प्रजनन को नज़दीक से अध्ययन करने का अवसर मिला और उन्होंने उसकी क्रमिक बहुसंसर्ग प्रजनन प्रणाली की खोज की। बाद में टीकाकारों ने सुझाव दिया कि यह अध्ययन मुगल प्रकृतिवादियों की परंपरा थी और सालिम अली की प्रशंसा की। उसके बाद उन्होंने कुछ महीने कोटागिरी में बिताया जहाँ के॰एम॰ अनंतन ने उन्हें आमंत्रित किया था, अनंतन एक सेवानिवृत्त आर्मी डॉक्टर थे जिन्होंने प्रथम विश्व के दौरान मेसोपोटामिया की सेवा की थी। अली का सम्पर्क श्रीमती किनलोच से भी हुआ जो लाँगवुड शोला में रहती थी और उनके दामाद आर॰सी॰ मोरिस जो बिलिगिरिरंगन हिल्स में रहता था। इसके बाद उन्हें शाही राज्यों में वहाँ के शासकों के प्रायोजन में व्यवस्थित रूप से पक्षी सर्वेक्षण करने का अवसर मिला जिसमें हैदराबाद, कोचिन, त्रावणकोर, ग्वालियर, इंदौर और भोपाल शामिल हैं। उन्हें ह्यूग व्हिस्लर से काफी सहायता और समर्थन प्राप्त हुआ जिन्होंने भारत के कई भागों का सर्वेक्षण किया था और इससे संबंधित काफी महत्वपूर्ण नोट्स रखे थे। दिलचस्प बात यह है कि व्हिस्लर शुरू-शुरू में इस अज्ञात भारतीय से काफी चिढ़ गए थे। द स्टडी ऑफ इंडियन बर्ड्स में व्हिस्लर ने उल्लेख किया कि ग्रेटर रैकेट-टेल ड्रोंगो की लंबी पूँछ में आंतरिक फलक पर वेबिंग की कमी होती है। सालिम अली ने लिखा कि इस तरह की अशुद्धियाँ प्रारंभिक साहित्य से चली आ रही हैं और सुस्पष्ट किया कि मेरूदंड के मोड़ के बारे में यह गलत था। ( 12 ) 13 Votes have rated this Naukri. 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